रेत का कथ्य

ret ka kathy

रमेश ऋतंभर

रमेश ऋतंभर

रेत का कथ्य

रमेश ऋतंभर

और अधिकरमेश ऋतंभर

    रेत,

    रेत के विस्तार की मृगतृष्णा मत पालो

    रेत, हमेशा रेत ही होती है...

    उसमें कोई सभ्यता पनप नहीं सकती

    उसकी रचना-प्रक्रिया को भरसक टालो

    मरुस्थल

    साक्षी है उस सत्य का

    जो सभ्यताओं के मलबे से उपजता है

    एक पेड़

    जो अपनी छाया और हरेपन को विस्तार

    देने के क्रम में बरसों जूझता है

    और रेत

    उसे पल भर में निगल लेती है

    पर वह यह भूल जाती है कि

    हरेपन से ही सभ्यताएँ ज़िंदा रहती हैं

    जब सभ्यताओं पर रेत के इरादे

    हावी होने लगते हैं

    तब उनका अस्तित्व ख़तरे में दिखाई देता है

    तब रेत के विस्तार का भय उन्हें सालता है

    और जब हरेपन की सभ्यता की क़ब्र पर

    रेतों की रचना शुरू होती है

    तब कहीं जाकर एक रेगिस्तान

    अस्तित्व में आता है

    नीति-निर्माण को

    तुम कभी भी

    रेत को अनदेखा मत करो

    कम से कम

    उससे यह तो सीख मिलती ही है कि

    हरेपन से संबंध कभी तोड़ा नहीं जा सकता

    तुम

    रेत के कथ्य पर पर्दा मत डालो

    उसे कहने दो

    उसे उड़कर आँखों में पड़ने दो

    ताकि तुम्हें यह आभास हो सके कि

    हरेपन और छाया का जीवन में कितना महत्त्व है

    और फिर कल

    तुम हरेपन की सभ्यता को समाधिस्थ

    करने की सोच सको।

    स्रोत :
    • रचनाकार : रमेश ऋतंभर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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