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रातरानी

ratrani

कर्मदेव पाठक

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रातरानी

कर्मदेव पाठक

और अधिककर्मदेव पाठक

    इस संसार में व्याप्त

    सारी दसों दिशाएँ

    तुमसे हैं जुड़ीं

    जिस ओर भी मुड़ता हूँ

    मुझे दीख पड़ती हो तुम

    अलगाते हुए दुराहों पे खड़ी

    अपने बाएँ ओर केश पर

    अटकाए हुए

    रातरानी का एक पुष्प।

    खिल-खिलाती हुई

    अपनी दो तंतु रूप अलकें

    अटकाती हुई

    अपने कान के पीछे

    और तुम्हें निरंतर देखता हुआ मैं

    परछाईं की तरह तुम्हारी।

    पार कर दुराहों को

    लाँघ कर चौराहों को

    अनुसरण करने लग जाता हूँ तुम्हारा

    लड़खड़ाते, गिरते, संभलते

    तुम्हारे दिव्य रूप का!

    तुम जो मेरी कविता का सार हो

    तुम जो मेरी जीवन की धार हो

    तुम हो मेरे बाग़ का सबसे सुंदर पुष्प!

    तुमसे ही जीवन है।

    और तुम्हारे पीछे-पीछे

    चलता हुआ दबे पाँव मैं

    पहुँच जाता हूँ,

    किसी पोखर के किनारे

    जहाँ बस सन्नाटा ही है

    व्याप्त,

    और उस सन्नाटे में बस

    खिलखिलाने का स्वर

    तुम्हारी पायल की छन-छन का स्वर

    तुम्हारे दुपट्टे की सरसराहट

    जब वो अटकता और छूट जाता है

    पगडंडी पे उगी, मरी हुई

    ऊँची सिर झुकाए घासों से

    फूलों से,

    ...पातों से।

    मैं भी भागता हूँ, भागता हूँ,

    इतने वेग से कि थाम लूँ

    लहराता, फड़फड़ाता

    मुझे स्वयं में लपेटता जाता

    तुम्हारा दुपट्टा

    जिस पर

    सजे हुए हैं

    मृत पुष्प, घास फूस

    तितलियाँ और जुगनू।

    मैं भागता जाता हूँ,

    मन को भरमाते

    पाँवों से स्वयं का वेग बढ़ाते

    चक्षुओं में नवद्वीप जलाते

    हाँफते-डाँफते,

    तुम्हारे बदन के बीचों-बीच से

    पार कर जाता हूँ तुमको

    और जब देखता हूँ

    मुड़ कर भौंचक्का-सा

    तो तुम जाने कहाँ,

    हो जाती हो विलीन

    परब्रह्म की भाँति आकारहीन

    उसी पोखर के किनारे!

    अनजानी मायूस हवा के सहारे

    और हो उठते हैं जीवंत

    पुष्प, घास-फूस, तितलियाँ,

    और जुगनू सारे!

    और मैं आसमान की ओर

    देखता हूँ तो एक श्वेत पुष्प

    दीप्त हो,

    मुझे खींच लेना चाह रहा है

    स्वयं के भीतर

    कदाचित तुम्हारी ओर!

    स्रोत :
    • रचनाकार : कर्मदेव पाठक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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