रंग-बदरंग

rang badrang

गोरधनसिंह सेखावत

और अधिकगोरधनसिंह सेखावत

    छज्जों से लटकी हुई उदासी

    आस्थाहीन दीवार से / घुटी हुई साँसों की

    अर्थहीन ज़िंदगी। समय सिसकता है

    परत के नीचे / अपने ढंग।

    पारस्परिक संबंध / कोसों चले हुए

    पस्त पाँवों की / थकान-से लगते

    अस्पताल की चहल-पहल / बूढ़े पलंग पर

    रोने लगता है आदमी / अपने रक्त के भीतर

    देखता अपनी तस्वीर।

    झड़ने लगता है अँधेरा / धीरे-धीरे / सड़क के सहारे

    उड़ते पाँवों की आवाज़ / शंका में घुटती / धीमी पड़ती।

    कई निकलते छेद / सिर पर तने आकाश में

    नितांत चौतरफ़ / चौराहे टँगी लाश

    भीड़ के धक्कों से / छिल गए कंधे।

    छिपकली के / शब्दों की व्याख्या करता

    चितबंगा मानव / काला पवन

    मनुष्यता को पूछता / आँखें झपकाता।

    तकिए के नीचे / देह की ऊष्मा का ताप

    ग़रज़मंद रात से लड़ता।

    मैं सोचता, सूर्य को / देखने का चाव

    अब सवेरे जल्दी नहीं जगाएगा

    ग़ज़ब है / बूढ़ी साँसों के सहारे

    दम तोड़ता यह गाँव। फीकी धूप

    कजलाए हुए चेहरों पर / भूख की अटल छवि।

    अनसुहाते से / खेत और वृक्ष

    चुल्लू पानी के भरोसे / सरोवर की ओर भागते पाँव

    पसीने की पपड़ी में / जमे हुए सपने।

    भूख के / भजनों को याद करती मनुष्य-योनि।

    क़ुदरत के लंबे हाथों के / क़िस्से-कहानी।

    नितांत भाषा / पल-पल घुटते मन की

    थकी हुई आशा / ये पर्वत। ये दूह / यह नदी।

    ये नाले / अपना रंग / पर बदरंग।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक भारतीय कविता संचयन राजस्थानी (1950-2010) (पृष्ठ 73)
    • संपादक : नंद भारद्वाज
    • रचनाकार : गोरधनसिंह सेखावत
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2012

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