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राका-गीत

raka geet

अनुवाद : यतेन्द्र कुमार

पर्सी बिश शेली

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और अधिकपर्सी बिश शेली

    त्वरितमयी, पश्चिमी लहर पर,

    हे राका! तू विचरण कर!

    बाहर कुहरिल पूर्व-गुहा से,

    जहाँ दीर्घ एकांत दिवाभा—

    में बुनती, भय, सुख के सपने,

    करते तुझको भयतर, प्रियवर!

    हो तेरी उड़ान द्रुततर!

    तू लपेट अपनी आकृति पर,

    तारक-अंकित भूरी चादर,

    मूँद दिवा-दृग निज कुंतल से,

    चूम उसे जब तक वह थके,

    विश्वर, नगर, सागर, धरती पर,

    फिर निज मादक छड़ से छूकर

    आ, हे! दीर्घ प्रतीक्षित!

    जब मैं जगा, उषा को देखा,

    तुझको मैंने आह भरी!

    ज्योति उठी जब तुहिन पलायित,

    कुसुम द्रुमों पर, दुपहर शायित।

    थकित दिवा ने किया शयन जब,

    रुक कर अतिथि अयाचित-सा तब,

    तुझको मैंने आह भरी।

    तेरा भाई यम आया, तुझको पुकारता,

    मुझे चाहते हो तुम क्या?

    तेरा प्रिय शिशु 'शयन' नयन झिल्ली से ढकता,

    गुन-गुन कर बोला, दुपहर की मधुमक्खी सा,

    “दे सकते क्या नीड़ मध्य में मुझे शरण ही?

    मैंने उत्तर दिया तुरत ही,

    'नहीं, तुझे भी नहीं!

    जब रहेगी, तू जीवित यम आवेगा ही,

    सत्वर ही, अति सत्वर ही,

    जब तू उड़ जाएगी, शयन बुलाएगा ही!

    दोनों का अहसान चाहिए, मुझे नहीं पर,

    मुझे तुम्हारा मिले अनुग्रह राका प्रियतर।

    तेरी आगामिनि उड़ान हो द्रुत से द्रुततर,

    सत्वर! हे राका सुंदरि।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शेली (पृष्ठ 15)
    • संपादक : यतेन्द्र कुमार
    • रचनाकार : पर्सी बिश शेली
    • प्रकाशन : भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़

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