रात की रानी, तू कितनी धन्य है

raat ki rani, tu kitni dhany hai

ओ.एन.वी. कुरुप

ओ.एन.वी. कुरुप

रात की रानी, तू कितनी धन्य है

ओ.एन.वी. कुरुप

और अधिकओ.एन.वी. कुरुप

    छाँह के साँप जहाँ अंधे हो तैरते ज्योत्स्ना में,

    निरालंब शोकों के आँसू-कुसुम ढुलकती रात में

    रात की रानी! तू किस अदृश्य प्रकाश को अपने में

    ज्योतित करने को खड़ी की खड़ी रह गई?

    ज्योत्स्ना को ललचाती मसृणता

    तुझे किसने दी? हे मदोना* स्मिति की

    अनाघ्रात लावण्य निर्मलता!

    हे मूक निःस्पंद गंधर्व संगीत!

    हे तुषार बाष्प में तपस्यालीन नित्यकन्या!

    रात की रानी! तू कितनी धन्य है!

    सुस्मितै, तू खिली! तेरे मन में तरंगित

    प्रकाश बाहर नहीं; अंधकार प्रसूत नागों के

    चाटती ज्योत्स्ना के चिलमिलाते

    मृण्मय पात्र में तू खिली! खिलकर

    उच्छ्वास एक भरकर खड़ी! मन की सौम्यार्द

    गंध उस निच्छ्वास में चू पड़ती रही!

    रात की रानी, तू कितनी धन्य है!

    तेरा सर्वस्व लूटने को ललचाता

    निशा पवन दौड़-धूप कर हाँफ़ता

    तेरी रेशमी साड़ी का आँचल खींचता;

    हाथ जोड़, एकाग्र शांत निस्तब्ध;

    सधीर कोई निर्वाण मंत्र जपा?

    ज्योत्स्ना हुई मंद, पलक-कपाट हुआ बंद

    सनिश्वास “हंसगान”* हुआ समाप्त।

    रात की रानी! तू कितनी धन्य है!

    इनके लिए अंधकार भरा संसार

    खुलता तो जन्म के अपराध पर

    “जीने” के विविध-निर्देश पर,

    तेमस के जंग लगे पड़ाव एक में

    क़ैदी बने दुख हम, कवाट कोई तोड़

    पहुँचते किसी सहस्रांशु की सतत प्रतीक्षा में

    अस्त होते मोह हम! भय-विह्वल हो

    घूरकर देखते हा! मृत्यु को!—तू स्वयं

    मृत्यु को वरण करती कन्या!

    रात की रानी! तू कितनी धन्य है!

    मदोना : परिशुद्ध कन्या की मुस्कान

    हंसगान : (स्वान सोंग) अंतिम गान

    स्रोत :
    • पुस्तक : दर्शन (पृष्ठ 11)
    • संपादक : एन. पी. कुट्टन पिल्लै
    • रचनाकार : ओ. एन. वी. कुरूप
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1991

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