रात एक जगह है

raat ek jagah hai

सौरभ कुमार

सौरभ कुमार

रात एक जगह है

सौरभ कुमार

और अधिकसौरभ कुमार

    रात!

    रात उठ रही है

    दूर-दूर तक फैली

    सदियों पुरानी रात!

    रात के भीतर नया-नया मैं

    कितना अधिक नया

    इस आदिम रात के भीतर

    रात के भीतर

    रेलगाड़ियाँ निकल रही हैं—

    कहीं से कहीं के लिए

    कुछ देर बाद गुम हो जाती रोशनियों-आवाज़ों के साथ

    रात उठ रही है

    कुएँ में आवाज़ की तरह

    फूस के छप्पर की तरह दुनिया की नींद में

    बिस्तर के सिरहाने रखे पानी के बर्तन में

    धान के गंध की तरह

    उठ रही है रात

    मछलियों की दुनिया में रात एक पक्षी है

    मेमनों की स्मृतियों में ओस भीगी टोकरी

    चापाकल के ऊपर अमरूद का अँधेरा

    माल-जाल सुस्ताते

    चभलाते लुच-पुच समय की डार

    रात के भीतर सब कुछ इतना थिर

    इतना थिर

    इतना

    कि हिल रही है सिर्फ़

    सिर्फ़ सघन रात!

    रात के बाहर

    बस पेड़ की जड़ें हैं—

    उतरती गहरे ज़मीन के अंदर

    अँधेरे में बढ़तीं, ढूँढ़तीं पानी

    अँधेरे में बढ़ते हुए बढ़ती है रात

    वह हमारा यक़ीन है

    पुरखों की धरोहर

    रात एक जगह है—

    नक़्शों के बाहर

    फूस के छप्पर पर

    कद्दू की लतर से लगकर

    चमकता है नए-नए सितुए-सा चाँद

    रात के अंदर

    ख़बरें छपती हैं

    ख़बरों के अंदर लगती है सेंध

    पर इनसे दूर बाँस के जंगल में नए बिरवे-सी कोमल

    उठ रही है आदिम

    आदिम रात।

    रात एक दुनिया है—

    दुनिया के भीतर।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सौरभ कुमार
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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