पुश्किन की ख़ामोशी

pushkin ki khamoshi

मनोज मल्हार

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पुश्किन की ख़ामोशी

मनोज मल्हार

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    भयावह शीत की संध्या।

    दिखाई देने वाली बर्फ़ीली हवा

    जिस्म को रेतने-सी लगी थी,

    पेड़ों के डाल–पत्तों से घिरे पुश्किन

    एक ही मुद्रा में सामने देखे जा रहे थे।

    ठीक उनके नीचे एक आदमी

    हाथों में चौकोर अख़बार का टुकड़ा हिलाता हुआ...

    किसी अदृश्य शिशु को झुलाता

    नदी की लयात्मक प्रवाह बताता

    अदृश्य रेल को झंडियाँ दिखाता...

    कौन था वो?

    कोई पागल या कलाकार या दोनों?

    सुना है पागल कलाकार होते है

    कलाकार पागल।

    पागलपन में महान कलाएँ सध जाती हैं...

    ...हो सकता है

    कोई नौसिखिया अभिनेता हो

    अंग सञ्चालन की अज़ीबो-ग़रीब हरकतों से

    किसी घटना चरित्र भाव साधता...

    पर उसे वही जगह चुननी थी

    पुश्किन साहेब के ठीक नीचे।

    दिन के वक़्त वहाँ लड़कियाँ होती हैं

    किताब पढ़ने फल बेचने वाली।

    आने वाले जाने वाले

    उसी जगह देखते हैं

    जहाँ पुश्किन देख रहे होते हैं।

    पागल पर कोई प्रतिक्रिया नहीं महामौन।

    युगों की संघनित चुप्पी

    उनकी आदतों में शुमार है अब।

    मैं ही उनसे कहता हूँ–

    हमारी सदी में लौट आईए जनाब!

    ये वक़्त फिर नायक पैदा करने का है

    युवा स्त्रियों का अप्रतिम सौंदर्य यूँ ही जाया होती हुई...

    ...आप देखिए शहर की इमारतें गलियाँ रंग दीवारें।

    आपके वक़्त की नायिकाएँ

    कितनी सहमी–सी बनावटी–सी...

    ....

    सामने देख रहे पुश्किन

    मेरी बातों को तवज्जो नहीं देते।

    मैं ही लौट जाता हूँ उनकी सदी में...

    ...

    मंडी हाउस स्थित पुश्किन की प्रतिमा से एक शाम गुफ़्तगू के आधार पर...

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनोज मल्हार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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