पुरखों के घर

purkhon ke ghar

दीपक जायसवाल

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पुरखों के घर

दीपक जायसवाल

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    चहारदीवारी और इक छत

    से ही नहीं बन जाता घर

    धड़कते हुए हृदयों से बनता है

    जिनकी शिराएँ-धमनियाँ नसों की तरह

    उन दीवारों में फैली रहती हैं

    हर इक कोना स्मृतियों का समुंदर सँजोए रहता है।

    पुरखों के संघर्ष, आँसू, दर्द, ख़ुशी सबके

    निशान दुनिया की सबसे सुंदर अदृश्य लिपि में

    उन दीवारों में शिलालेख की तरह टंकित होते हैं

    मरने के बाद भी माँ जीवित बनी रहती हैं

    किसी कमरे से आवाज़ देते हुए

    जैसे चली रही हों

    बाबू कहाँ हो?

    बाबूजी की गंभीर आँखें हमारी हरकतों पर

    अब भी नज़रें गड़ाए रहती हैं

    यदि कोई दीवारों को ध्यान से सुने तो

    दादी को सोहर गाते हुए

    माँ को गौना का गीत गाते हुए सुन सकता है

    लोग बड़े हो जाते हैं

    लेकिन उनके बकैयाँ खींचने वाले पंजे

    और घुटनों के निशान आँगन में बने रहते हैं।

    किसी झूठे आदमी ने कह रखा है

    कि स्वर्ग ऊपर कहीं आसमान में है

    दरअस्ल, घर ही वह जगह है

    जहाँ रहते हैं जीवित देवता मौजूद

    लेकिन वह अपनी देह के साथ अमर नहीं होते

    जब भी कोई देवता छोड़ता है देह

    घर की दीवारों में सीलन भर उठती है।

    ब्रह्मांड का यही वह आख़िरी सिरा है

    जहाँ से हम अपनी देह में बह रहे ख़ून की

    दिशा जान सकते हैं

    अपने हृदय पर पड़ने वाले गुरुत्व का ठीक-ठीक

    अनुमान लगा सकते हैं

    पुरखे घर की नीव में ईंट के टुकड़े बोते हैं

    जिसकी सोरे बढ़ते हुए पाताल तक जाती हैं

    और उनकी फुनगियाँ, पत्ते

    डालियाँ, कलियाँ, फूल आसमान तक।

    स्रोत :
    • रचनाकार : दीपक जायसवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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