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पुनपुन

punpun

बिल्कुल पास तो नहीं बहती थी तुम

पर तुम्हारे ख़याल से कभी ज़ुदा नहीं पाया ख़ुद को

खेतों-मैदानों से गुज़रती स्मृतियों में भी बहती रही तुम लगातार

बहुत बचपन की यादें हैं जब

तुम्हारा पानी किनारों को तोड़कर आता था

हमारे गाँव की सरहद पर

पानी लाता था ढेर सारा उल्लास

छोटी-छोटी मछलियाँ, सीप और घोंघे

बहुत मुलायम और नरम मिट्टी का कोई छोटा-सा हिस्सा

धान के अधडूबे खेत

पानी की धार पर जाता कोई डोडवा

अपने बैलों को लेकर बाज़ार से लौटते पैकार

सोन का लाल पानी भी आता था कभी-कभी

पुनपुन के इस हिस्से में

और रह जाता था महीनों

कभी-कभी तो वर्षों तक

तुम्हारी बाढ़ को लेकर कोई ग़ुस्सा नहीं था हमारे भीतर

और नही किसी नदी के कोख से पैदा होने का कोई ग़ुरूर

बहुत छोटे थे हम और शायद हमारे पूर्व जभी

मिथक हमें सिर्फ़ इतना बताते हैं कि

कभी पांडवों ने जल दिया था अपने पूर्वजों को

तुम्हारे घाट पर

और कवि बाण जब ऊबते थे सोन से

तुम्हारे ही पानी से बुझाते थे अपनी काव्य-प्यास

पुनपुन बहुत छोटी नदी हो तुम

नदियों के इतिहास में दर्ज नहीं है तुम्हारा नाम

स्वर्ण और चाँदी के अक्षरों में

नक़्शे में भी शायद ही दिखे तुम्हारी

पतली-सी लकीर

लेकिन जो लकीर तुमने खींच रखी है

हमारे दिलों में

वह इन अकादमिक रिकॉर्डों से

कहीं ज़्यादा गहरी है

और यह कविता इसकी एकमात्र गवाही नहीं है

पुनपुन, बहती रहो तुम इसी तरह हमेशा

धरती के इस हिस्से में प्रवेश करती रहो

मनुष्यों और फ़सलों के भीतर

ज्ञान और सूचना के इस अराजक समय में

सींचती रहो हमारी संवेदना

स्रोत :
  • रचनाकार : प्रत्यूष चंद्र मिश्र
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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