मैं स्वयं उनके द्वार पर जाता हूँ

main swayan unke dwar par jata hoon

भाई वीर सिंह

भाई वीर सिंह

मैं स्वयं उनके द्वार पर जाता हूँ

भाई वीर सिंह

और अधिकभाई वीर सिंह

    मैं बकरियाँ चराती,

    दोपहर की धूप में थक-हार,

    चिनार की छाया में पाषाण-शिला पर बैठी कि

    मेरे राजन्, तुम्हारे सिपाही ने

    तुम्हारी आज्ञा सुनाई :

    “रात को, हाँ, आधी रात के समय,

    खटखटाना मेरे प्रासाद का द्वार,

    राज्य प्रासाद का—

    पिछवाड़े की ओर का द्वार,

    महाराज स्वयं आकर खोलेंगे

    अपने किवाड़।

    हाँ, रास्ते-रास्ते भटकने वाली

    मुग्ध हो गए महाराज,

    चिथड़ों में लिपटी तुम्हारी देह निहार!”

    काँपती और उदास होती,

    कभी अनमनी-सी,

    कभी इसे उपहास समझती,

    मैं आधी रात को चल ही पड़ी।

    चलती और रुकती,

    कभी ठुमक-ठुमक पग धरती, कमी थिरकती,

    पहुँची मैं तेरे द्वार,

    राजा जी, खोलो किवाड़।

    मेरे सौभाग्य से घिर आए मेघ,

    जुड़े बीच आकाश,

    छाया चतुर्दिक् अंधकार,

    अनेक ठोकरें खाती मैं पहुँची,

    बड़े ज़ोर से थाम-धाम रखती आशाओं का आँचल,

    पहुँची मैं तेरे द्वार,

    राजा जी, खोलो किवाड़।

    हाय, होने लगी बूँदा-बाँदी,

    चलने लगी पुरवाई,

    मेरे राजा,

    कड़कती है बिजली बीच आकाश

    गरजती है साथ में मेघों की सेना,

    कौंधकर आँखों को चुंधियाती,

    पर दिखा जाती बंद किवाड़,

    राजा जी, तुम्हारे बंद किवाड़,

    खोलो अपने बंद किवाड़।

    कहाँ हो, बंद किवाड़?

    मैं तो मर गई तुम्हारे द्वार,

    देखकर तुम्हारे बंद किवाड़,

    हाय, खाकर वर्षा की बौछार।

    यह तो है मेरी अपनी कुटिया

    घास-फँस की मढ़ैया, सरकण्डों की कुटिया,

    इस में विराजमान हैं मेरे महाराज,

    राजा जी, राजाधिराज,

    कैसे आन पधारे मेरी घास-फूस की कुटिया!

    कैसे लौट आई मैं बंद किवाड़ निहार?

    मुझे अपनी झोली में लेकर,

    महाराज ने होंठ खोले :

    जो मुझे करते हैं प्यार,

    वे जाते हैं मेरे द्वार,

    जैसे-तैसे मिल जाए मेरा दीदार :

    पर मैं स्वयं जिन्हें करता हूँ प्यार,

    जाता हूँ मैं उनके द्वार—

    उनका द्वार, मेरा द्वार।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 391)
    • रचनाकार : भाई वीर सिंह
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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