मैं शकुंतला नहीं

main shakuntala nahin

वनिता

वनिता

मैं शकुंतला नहीं

वनिता

और अधिकवनिता

    धर्म-विवाह का आधार

    अगर मुद्रिकाएँ ही हैं

    तब हे दुष्यंत!

    मैं शकुंतला नहीं

    जिसे तुम भूल जाओ

    और अपनी याद दिलाने के लिए

    मुद्रिका का सहारा लेना पड़े जिसे अपना निज

    अपने श्वास, प्राण विस्मृत हो जाएँ

    तो वस्तुओं का वास्ता…?! उफ़्फ़! कैसी तौहीन है?

    यदि मुद्रिका से ही पहचानना है

    तुम्हें मुझे

    तब अच्छा ही है

    कि तुम मुझे भूले ही रहो

    मैं जनूँगी भरत

    और भरत को जनने के लिए

    ही तो मैं विषण्ण होकर

    मारीच ऋषि के पास पहुँचूँगी

    ही पिता कण्व के पास

    मुझे तो तरस आता है

    दुर्वासा ऋषि पर भी

    काश! उसने स्मृतियों के रंगों का आनंद लिया होता

    पर उसे स्मृतियों से कैसा प्रेम?

    उसे तो अपनी भिक्षा की भूख

    वर एवं श्राप के लोभ और अहंकार ही पर्याप्त है

    किंतु हे दुर्वासा!

    मैं तुम नहीं जो वर दूँगी या श्राप

    हे पिता कण्व!

    यदि (तुम्हारा) द्वार तज दिया तो वापस पाँव धरूँगी

    ही मारीच के पास जाऊँगी

    किंतु हे दुष्यंत!

    यह आस तो बिल्कुल भी मत रखना

    कि मुद्रिका को अपनी गवाह बना मैं

    तुम्हें अपनी सुगंधियों और लाचारियों का वास्ता दूँगी

    पर मैं भरत जनूँगी

    जिसके लिए मछली के उदर में से मुद्रिका ढूँढ़ कर

    उसके पिता को तलाशने के स्थान पर

    मछलियों का निवास-गृह

    समुद्र पिता ‘पानी’ दूँगी

    माँ ‘धरती’ दूँगी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : सदानीरा
    • संपादक : अविनाश मिश्र
    • रचनाकार : वनिता
    • प्रकाशन : सदानीरा पत्रिका

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