पिंगला का सूर्य

pingla ka surya

वेणुधर राउत

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पिंगला का सूर्य

वेणुधर राउत

और अधिकवेणुधर राउत

    आत्मा कु दिअइ जे हरि, ता तहुँ आन इच्छा करि।
    मो प्राणनाथ अछि पाखे, मुँहि न देखइ प्रतक्षे।।
                                         (जगन्नाथ दास)

    यह नील निशीथ जैसे प्रज्वलित असंख्य तारों में
    यह नील निशीथ ज्यों पीड़ित लपकती ज्वाला में
    यह नील निशीथ ज्यों टूट रही प्रतीक्षा की क्लांति में,
    यह नील निशीथ ज्यों मिलती विदेह को महाशून्य में
    इस महाशून्य में मिल जाती गौड़गिरी रागिणी।
    पिंगला प्रेरित इतस्ततः कामातुर दृष्टि वार्ता,
    वासक सज्जा के उपचार, सारी ज्वाला, शून्य पथ
    निद्रित धरा पर दिगनीलिमा में क्रमशः स्वरों को करे विलीन 
    ध्यानस्थ च्यवन-सी, असह्य शून्यता और नीरवता-भरी-
    माँस का विलाप सुनाई देता, पिंगला का प्रिय कहाँ, प्रिय कहाँ?
    शोणित में अग्नि की लहर नाचती अँधेरे में लपलपाती।
    इस रात के आकाश में इतने तारे, इतनी रात, ये निर्जनता,
    पिंगला क्षुभित कितनी! क्लांत! ग्लानि में व्यथित!
    नील निशीथ में तारे, कामना, प्रतीक्षा ओ विदेह शून्यता,
    पिंगल देह की सीमा लाँघ, हृदय और मन आवेश 
    गोंडकिरी रागिनी की हर ताल पर कालिमा में करुणा 
    नील निशीथ में तारे, कामना प्रतीक्षा ओ बहिरंग 
    पिंगला का अंतरंग संक्रमित, आत्मा को करती पीड़ित 
    पिंगला की दृष्टि से वर्षा पथ से-बहीरंग से स्वतः अपसारित हो 
    खोजती अंतरंग में जहाँ कोई कुल पथ,
    मानो बह जाएगी सागर को स्वयं आज (कौन वह सागर?
    यह नहीं पिंगला का प्रिय, यह सागर-अनंत घोष में
    वह एक बिंदु का मात्र अणुस्वर, कौन है वह सागर!
    आशा का मार्धुय तट पर पिंगला को बहा 
    व्याकुल कर रहा, विह्वल और विमूढ़ 
    किस नाद में, किस नशे में, कौन है वह सागर?)
    पिंगला पा जाती कुछ-कुछ परिचय 
    सागर से अपरिचय में; 
    इस देह में परम कुछ, इंद्रियों की उत्तीर्णता,
    सत्य कुछ, क्रमशः स्खलित—  
    कुंडलिनी पिंगला हो रही मुह्यमान कुछ 
    कोई निर्मोक और 
    वह अचानक वातायन में अचानक आता,
    नीरवित विपंची से सुनाई दे रहा 
    स्वयंभू स्वर अनाहत दूर का,
    आत्मा जब गा रही है जागृति— 
    (मानो यह प्रीतशाला—‘विश्रंभण’ में सुखी 
    और पर्याकुल सिद्धार्थ के कान में
    वल्लकी से स्वयं जात स्वर में देवता का 
    गाया गीत—
    उठें हे माया पुत्र, समय हुआ,
    उठें हे अमृत दूत!)
    आत्मा निवोधित करती, उद्धार करती
    पिंगला का, परम और प्रेम के संगीत में
    पिंगला पहचानती स्वयं को
    प्रेम को, परम को अपने अनुभव में।
    पिंगला स्वयं को पहचान रही,
    परम प्रेम को क्रमशः 
    चकित उत्तरोत्तर भास्वर प्रज्वलित
    उसकी आत्मा की प्रत्यात्मा में
    पहचानती उस परम की नर्तित रम्य सत्ता।
    अतः पुलकित सात्विक विकार में
    उस अनंत संगीत के हर स्वर में 
    उच्छ्वसित होकर गा रही क्रंदन 
    परितप्त झंकृत और वेपथु में भरा 
    यह उत्तर निशीथ—
    (किसलिए गाया विमूढ़ मैं 
    कामना में उद्दाहक ऐसी गोंडकिरी)
    गाया उस अश्रुगंगा में धोकर 
    आत्म-कालिमा का उतना आकाश,
    बहाकर उतने तारे इस देह, मन में
    चंद्रिका और चंद कामना के—
    हाय, कितना रुलाया मुझ विपंची को
    किस देह वंदना में!)
    गाता उस स्वर में, मोह दे ऐसी देह,
    इतनी रात, इतनी निजनता—
    (मैं कितनी अशांत भ्रमती रही मृगी-सी!
    अपनी नाभि कस्तूरी के भ्रम में
    तरंग की फेन शिखा पर मुग्ध होकर 
    भूल गई अपना अनंत सागर!)
    वह शांति गाती भूलकर सारी ज्वाला,
    ग्लानि सारी, सारी आतुरता—
    (हे मेरे आत्मस्थ प्रिय! हे परम, अनादि 
    प्रीति क्षर मेरे, हे छह ऐश्वर्य मेरे,
    तुम्हारे रहते कैसे भ्रम में पड़ी किस अज्ञान 
    तिमिर लीला में?
    तुम मेरे मूर्तिमंत,
    सारे आत्मशून्य 
    सब पूर्ण कर चिरंतन प्रणय का 
    आत्मानंदी आह्लाद तुरीय 
    आह्लाद में...।)
    पिंगला गा रही निरवता मुह्यमान 
    मूर्छित है पीड़ा में 
    आश्लेष मुद्रा में उठाकर दोनों हाथ,
    और हँसी-रुलाई की शबलता में
    देखती मायावी सारी रात 
    और अरण्य और इंद्रियजनित 
    वेपथु में थरथराते रोहित और नर्तित 
    द्युति में स्पंदित;
    पिंगला नाड़ी में स्वयं-उच्छ्वसित
    प्रच्छन्नस-सूर्य का विभास
    उस विभास में भेंट होती सागर से,
    सागर को उसी के सूर्य को 
    आश्लेष मुद्रा में उठा तदवस्थ 
    दोनों हाथ मुह्यमान मूर्च्छित आलोक में।
    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 93)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : वेणुधर राउत
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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