मड़ैयामे बसनिहारक हाक्रोश जखन तेज होबऽ लगैत छै
बंगलासँ बहराइत ठहक्का जखन नितराय लगैत छै
तँ हम सोचैत छी
जे आब शीघ्रे एकटा अन्हड़ उठऽ बला छै
भेल रहय ओहिदिन
जखन हेंजक हेंज मनुक्ख
घेरने जा रहल छलै ओहि कोठीकेँ
जे उमरैत पानिकेँ छेकि राखव
कतेक जरबदायी होइत छै
बान्ह दरकि गेलापर
पानि कोना अताइ भऽ जाइत छै
आकि, खगल
कोना अन्हार/चोन्हरा जाइये
(ओना तीन युगसँ उपर भेलै)
एहि कोठरीमे रहैत-रहैत
हमर सर्वांगमे भूरे-भूर भऽ गेल अछि
मांछीक अनवरत प्रहारसँ
एकर स्वरूप विकृत भेल जा रहल छै
होइत छै कहियोकाल प्रयास
तँ मात्र मांछी रोमबाक
आ तेँ, थोड़े कालक वास्ते
पीड़ा मेटा जयबाक भ्रम लोक पोसि लैत अछि
बंधु हमर!
से ई स्थिति ओहि अमलदारीक कोसल छियै
आकि एही अमलदारीक उपजा
—से विवादपूर्ण प्रश्न थिकै
ओना बात कोनो फूसि नहि छै
जे जूता तँ वैह रहैत छै
बदलल जाइत छै मात्र पयर!
ई विडम्बना कही वा आनहि किछु
एक्के चौहद्दीमे कतौ क्यो
अपन अभिलाषा-बेगरताकेँ पुनर्जीवित करैत
हेंज बान्हि चलि पड़ल अछि
तँ कतौ क्यो
एकातसे बैसल कोनो कुकूर जकाँ
अपन घाकेँ चटबामे मगन अछि
एकदिन बाट चलैत ओ बजरि गेल छलाह—
छोटछीन बातपर
ई चौहद्दी गर्त्तमे चलि जायत
जुलूस, घेराबन्दी, हड़ताल...
मात्र पोलिटिकल स्टंट छियै
बात कोनो से रहितै
तँ सोचलो जा सकै छलैये
भाइ रौ, नहि सम्हरलै मूह
बाजि उठलै—
बंधु!
मोटरी सेर भरिक हो वा मन भरिक
माथपर रखने उघैबला टा
कहि सकैये
जे भारमे कते समानता होइ छै।
- पुस्तक : उपक्रम (पृष्ठ 49)
- रचनाकार : बिभूति आनन्द
- प्रकाशन : भवानी प्रकाशन
- संस्करण : 1984
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