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पतझर

patjhar

बोरीस पस्तेरनाक

और अधिकबोरीस पस्तेरनाक

    मैंने बिखर जाने दिया है अपने कुटुंब को

    बिखर गए हैं मेरे प्रियजन

    एक आजीवन अकेलापन

    मेरे स्वभाव में मेरे मन में बस गया है,

    और यहाँ मैं हूँ, तुम्हारे साथ एक छोटे से घर में।

    बाहर है जंगल, निर्जन, रेगिस्तान की भाँति।

    गीत के अनुसार—पथ और पगडंडियाँ

    कब की घास से ढक गई हैं

    काठ की दीवारें उदास हैं

    क्योंकि उनमें केवल हम दो हैं, उन्हें अपलक घूरते हुए

    पर हमने कभी बंधनों का अतिक्रमण नहीं किया।

    हम ईमानदारी से नष्ट हो जाएँगे।

    एक बजे हम मेज़ पर बैठ जाते हैं

    उठते हैं तीन बजे

    मैं अपनी किताब लिए हुए, तुम अपना क़सीदा

    सुबह हमें याद भी नहीं रहता

    कि कब हमारे होठ होठों से अलग हुए।

    पत्तियो! सर-सर-मर-मर झरो और अपने को छलका दो

    सदा से ज़्यादा शान से, सदा से ज़्यादा बेलौसपन से

    कल तक की कड़वाहटों के प्याले को

    और भी लबरेज़ कर दो आज के दर्द से

    निष्ठा, लालसा और सुख को

    रेशा-रेशा बिखर जाने दो, पतझर की गरजती झंझा में :

    और तुम जाओ और लीन हो जाओ इस चिटकते पतझर में

    ख़ामोश हो जाओ, या बौरा उठो

    तुम उतार फेंकती हो अपने वस्त्र

    जैसे झाड़ियाँ, अपनी पत्तियाँ झाड़ देती हैं,

    और रेशमी डोर से कसे एक ड्रेसिंग गाउन में लिपटी

    मेरी बाँहों में लहरा जाती हो

    तुम इस विनाशगामी पथ की एक मात्र मिठास हो—

    जब ज़िंदगी बीमारी से भी बदतर हो जाए

    तब सौंदर्य केवल दुस्साहस की मिट्टी में पनप सकता है

    वही एक दुस्साहस का सूत्र हमारा बंधन बन गया है

    हमारा मंगल-सूत्र।

    स्रोत :
    • पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 435)
    • संपादक : धर्मवीर भारती
    • रचनाकार : बोरीस पस्तेरनाक
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
    • संस्करण : 1960

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