पतझड़ के दिनों में माँ

patjhaD ke dinon mein man

प्रभात मिलिंद

प्रभात मिलिंद

पतझड़ के दिनों में माँ

प्रभात मिलिंद

और अधिकप्रभात मिलिंद

     

    डिमेंशिया से ग्रस्त माँ के लिए 

    एक

    एक फक्कड़ टीचर के साथ बस 
    दो जोड़ी कपड़ों में विदा होकर आई थी 
    तीसरी साड़ी कोई डेढ़ बरस बाद लाकर दिया था 
    कानपूर से मामा ने, मंँझली मौसी के बियाह पर 

    तब तलक पहले वाली दोनों की 
    चमक धुँधला चुकी थी...

    आधे जेवर उसके 
    चाँदी की कमरधनी 
    और फूल-काँसे के बरतन...
    चचेरी बहन के दहेज में चले गए... 
    सबके सब 

    बाबूजी की हथेली पर सिर्फ़ तेरह सौ धर कर 
    डबडबायी आँखों के साथ हाथ जोड़ लिए थे बड़े बाबूजी ने 

    माँ एक टीस के साथ परदे की ओट से
    देखती रही थी... बेबस 
    और बाबूजी अपना भातृ-ऋण चुकाते रहे 

    बेटे को ब्याहने के छह महीने बाद 
    बड़े बाबू ने सात कमरों का 
    सफ़ेद फ़र्श वाला दुतल्ला मकान ख़रीदा, 
    कोई बाईस हज़ार में... बीच बाज़ार पर 
    फिर परिवार से अलग हो गए महीने भर के भीतर    

    ठगे से बाबूजी अकेले रह गए
    गिरवी पड़े पुश्तैनी घर में 
    साथ रह गया था बाबा का छोड़ा क़र्ज़ 
    जिसे अकेले ही तोड़ना था उनको
    माँ की हँसी और सपनों को 
    आने वाले कई सालों तक रौंद कर

    दो

    जिसमें हम भाई-बहन बचपन में 
    कभी एक साथ खाया करते थे
    पीतल की चौड़े कोर वाली वह इकलौती थाली
    अब भी मेरी स्मृतियों में है...

    और, घर में आया प्लास्टिक का 
    वह पहला डिनर सेट भी 
    जिसे एक-एक पैसे जोड़ कर 
    करोलबाग़ के फुटपाथ से मँगाया था माँ ने 

    उस रोज़ घर में खीर बनी थी
    और हम सब बेहद ख़ुश थे... 

    लेकिन उस सेट में खाने का मौक़ा हमें 
    किसी मेहमान के आने पर ही मिलता था

    फिर जतन से सफ़ाई कर माँ रख देती थी
    उसे अपने टीन के बक्से में 

    उस छोटे से बक्से में रखी होती थीं
    घर की और भी कई ज़रूरी और क़ीमती 
    समझी जाने वाली दूसरी चीज़ें
    फिर भी उसमें बची रहती थी 
    अच्छी-ख़ासी ख़ाली जगह...

    उस ख़ाली जगह को धीरे-धीरे भरना था माँ को 
    अपने समस्त सुखों की क़ीमत पर 

    तीन

    हमारी ज़रूरतें हमारे क़द और वक़्त
    के हिसाब से बढ़ती जाती थीं साल-दर-साल 
    घर के फ़र्नीचर और दूसरे असबाब
    हमारे जूते-कपड़े और खेलकूद के सामान...
    बस एक माँ की ज़रूरतें थीं जो किसी भी कोने में 
    पड़ी बोनसाई तरह थीं, बेआवाज़ 

    जिन चीज़ों और ज़रियों से हमें 
    दुनियावी ख़ुशियाँ हासिल होती हैं 
    माँ ने उन तमाम चीज़ों के बग़ैर
    जीने का हुनर सीख लिया था 
    या फिर हमारी ख़ुशियों के बरअक्स 
    अपने तमाम सुख साध लिए थे उसने...

    हमें पाँच रुपयों की दरकार होती 
    तो हम माँ को अक्सर दस बताते
    अपने अंचरे की गंधाई गाँठ से वह बमुश्किल
    दो रुपए का नोट निकालती
    कहती... चलो भागो पता है, 
    महीना ख़त्म होने में बारह दिन बचे हैं अभी 

    उस वक़्त माँ की यह कृपणता 
    हमें बहुत खिन्न कर देती थी
    लेकिन हम रोज़ सुबह सुबह घी-भात और रात को 
    दूध-रोटी खाकर सब कुछ भूल जाते थे...

    चार

    उस रोज़ बाबूजी कैसे हक्के-बक्के रह गए थे 
    जब बहन की की शादी एक दिन तय हो गई अचानक
    और माँ ने एक छोटी सी लाल गठरी
    खोल कर पसार दिया था उनके सामने 
    एकदम नए गढ़े सोने की सीकड़, 
    एक जोड़ा कर्णफूल और कंगन, दो-दो अँगूठियाँ...

    बाबूजी कहीं हाथ फैलाने से बच गए, 
    वरना अभी-अभी तो वे क़र्ज़ से उबरे थे...

    फिर मिसिर जी की बगल वाली परती का 
    केवाला भी हो गया एक दिन 
    जिस पर तिनका-तिनका जोड़ कर 
    माँ ने बसाया था हमारा छोटा सा संसार 

    बाबूजी की मामूली तनख़्वाह से 
    पाई-पाई बचा कर माँ ही कर सकती थी ऐसे जादू 
    जबकि उसके हाथ में घरख़र्च से 
    ज़्यादा पैसे कभी दिए भी नहीं बाबूजी ने 

    उनको तो यह भी इल्म नहीं था 
    की सालों-साल नई चादरें और परदे तक 
    घर की रद्दियाँ और पुराने अख़बार 
    बेच कर ख़रीदती रही थी माँ 

    कभी-कभी तो हमें भी बमुश्किल यक़ीन होता 
    कि माँ के पीहर में आठ गायें थीं 
    और फिटन पर बैठ कर 
    स्कूल जाया करती थी वह अपने ज़माने में...

    आह... कच्चे तेल में पकी लाल मिर्च की 
    वह तीखी-सोंधी झाँस!
    जिसके चोखे और चाय के साथ बरसों-बरस
    रात की बची रोटियों का नाश्ता करती रही माँ 

    और, उस नाश्ते में हिस्सेदार रहे गली की 
    जमदारिन से लेकर महरी, गाय, कुत्ते 
    और कव्वे तक का उसका कुनबा 

    पाँच

    आलमारी में भरी हैं तांत, जरी और रेशम की 
    अनगिनत सुंदर साड़ियाँ और शालें
    जिनको माँ ने ख़ास-ख़ास मौकों के लिए 
    सालों से सहेज कर रखा था 
    लेकिन बाबूजी की हठात मृत्यु ने 
    एक दिन उसकी इस हुलस को भी तोड़ दिया 

    फिर कपास का फ़ाहा तक भी 
    नश्तर की तरह चुभता हो जिसमें, 
    बेतरह जर्जर हो चुकी वह देह 
    इनका बोझ उठा पाने के क़ाबिल भी कहाँ रही अब!

    तीसेक साल पहले मंगल चाचा ने 
    हम सबकी जो ब्लैक एंड वाइट फ़ोटो खींची थी
    उसमें बाबूजी के बगल में लजाती खड़ी माँ 
    कितनी सुंदर और भव्य दिखती है!

    तब हमने सोचा भी नहीं था 
    कभी माँ रोज़-ब-रोज़ ज़रा-ज़रा सी 
    सूखती हुई एक नदी बन जाएगी
    और जिसका प्रवाह हमारी एक दिन हमारी 
    स्मृतियों का उदास हिस्सा बन जाएगा... 

    मैं अक्सर सोचता हूँ कि क्या कुछ चलता होगा 
    उसके ज़ेहन में इन दिनों...
    अपनी शेष बची उम्र की आख़िरी सीढियाँ 
    उतरते हुए क्या सोचती होगी माँ!

    छह

    अब तो आँख-कान और देह-सवांग के 
    साथ-साथ स्मृतियाँ भी दग़ा दे रही हैं...

    अपनी जिजीविषा और ज़िद की 
    बुनियाद पर बसाई थी उसने जो गृहस्थी 
    उसके मोह से भी मुक्त हो चुकी है वह कमोबेश 

    मुझे अब भी उसके मीठे गले की धुँधली सी याद है...
    माँ कितना सुंदर गाती थी!
    लेकिन धनतेरस की रात 
    जब विदा हो गए मुन्नू भैया दुनिया से 
    उस रोज़ के बाद फिर कभी गाते हुए 
    नहीं सुना किसी ने उसको 
    और, न वह पुरानी डायरी ही देखी 
    जिसमें लिख रखे थे उसने अपनी पसंद के गीत 

    माँ के मौन रुदन में आज भी 
    मैं उन गीतों की तलाश करता हूँ...

    लेकिन बीमार और अशक्त माँ 
    के स्पर्श में भी एक अद्भुत आश्वस्ति होती है!
    बाहर की निष्ठुर दुनिया से लड़-हार कर 
    रोज़ जब हम घर वापिस लौटते हैं
    तब वही माँ हमारे लिए कड़ी धूप का सायबान
    और सूखे कंठ का पानी होती है...

    आप मानें या न मानें लेकिन 
    माँ के जीवन के साथ-साथ ही 
    विदा हो जाएँगी न जाने कितने स्वाद 
    और गंध की स्मृतियाँ भी एक रोज़ 

    अपने देवता-पित्तरों को पूजते हुए उसने 
    हमेशा अपने पति और बच्चों की 
    उम्रदराज़ी और ख़ुशियाँ ही माँगीं...

    अब याचना में जब कभी उठते हैं उसके हाथ 
    अस्फुट से स्वर में बस यही बुदबुदाती है वह
    राम मेरे...! मुक्त करो इस पापिन को 
    अब काया के इस पिंजर से!

    माँ अब ज़िंदगी और मौत के बीच 
    बस एक ठिठका हुआ लम्हा है...  

      
    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रभात मिलिंद
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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