परिदों की कक्षाएँ

paridon ki kakshayen

मनोज मल्हार

मनोज मल्हार

परिदों की कक्षाएँ

मनोज मल्हार

और अधिकमनोज मल्हार

    जाने वो क्या था

    दृष्टिभ्रम मतिभ्रम चकाचौंध

    कोई दिमाग़ी असामान्यता...

    मुझे घास पर परिदों की कक्षाएँ दिखाई दी।

    मुझे ठीक से याद है

    स्टूडेंट्स शोर-शराबा करते बैठे थे यहाँ

    कुछ किताबें कुछ नोटबुक कुछ पेन

    वे कक्षा में की गई चर्चा पर चर्चा कर रहे थे

    शायद प्रदूषण के बढ़ते स्तर पर

    या फिर युवा सुलभ विषयों पर...

    तब घास पर धूप फैली थी

    वृक्ष चुप थे दीवारों की चित्रकारी ख़ामोश

    गलियारे शाँत...कोई चटर-पटर नहीं।

    मेरी आँख मुँद कर खुली

    ...घास पर शाम का स्याह था

    और ढेर सारे परिंदे बैठे हुए...

    हैरानी की बात थी

    परिंदे भी शोर-शराबा कर रहे थे

    शायद ज़ोरदार बहसें कर रहे थे

    एकदम मनुष्य वाले स्टूडेंट्स की तरह।

    वही रवानगी वही तत्परता

    आँखों में पत्तों वाली किताबों के पन्ने झलक रहे से...

    मुझे वो स्टूडेंट्स लगे

    मानवेतर जगत के स्टूडेंट्स!

    वैसे ही शोर-शराबा करते।

    जो मुझे समझ में आया

    वे पक्षियों की सभ्यता पर चर्चा कर रहे थे

    इतिहास-पुराणों से बहुत पहले के युगों से नाता जोड़ते हुए

    ...तब धरती पर मनुष्य नहीं, परिंदे नेतृत्व करते थे

    विशालकाय वृक्षों पर विशालकाय घोंसलें हुआ करते थे

    फलों से भरे वृक्ष! पानी से लदे जलाशय।

    उन्हें सिर्फ़ उड़ान भरनी होते थी

    धरती की तहें, आकाशीय दूरी मापने के लिए...

    मतलब ये कि परिंदों की सभ्यता में विज्ञान और गणित ख़ूब विकसित थे।

    साहित्यशास्त्री घोंसलों के सौंदर्य पर महाकाव्य लिखा करते थे

    उनके विविध रंगी पंखों की बारीकियाँ

    चित्रकारों को प्रफुल्लित कर देता था।

    उन्होंने अपने सांस्कृतिक नायकों के नाम भी लिए

    पर अभी मुझे वो याद नहीं रहा...

    ...फिर जैसा कि उनकी भाव भंगिमा से ज्ञात हुआ–

    धीरे-धीरे मनुष्य की सभ्यता आई

    महान महत्व वाले प्राचीनतम वृक्ष कटने लगे...

    आग लगाई जाती थी! जंगली आग!

    वृक्ष की हर डाल के साथ उनके घोंसले जलते थे

    उनके महान प्रतिनिधि आग में भून दिए गए...जला दिए गए...

    वे मनुष्य की बर्बरता को याद कर अत्यंत खिन्न और हताश हो जाते हैं...

    शायद कहीं कोई स्मारक, स्मृतियों के चिन्ह हों...

    शायद वो जानते हों हत्याकाँड के कोई निशाँ...

    ऐसा नहीं था कि उन्होंने मनुष्य से संवाद की कोशिश नहीं की...

    बार-बार की मगर हर बार उन्हीं के घर जले

    उन्हीं के वृक्ष कटे, उन्हीं की सभ्यता नष्ट हुई

    ज़मीन बंजर कर दिए गए

    उनके दाना चुगने तक का काम हराम कर दिया गया

    क्यूँ कर दिया गया ऐसा??

    ‘ये धरती तो सब की थी...हम परिंदों की भी...

    फिर हम दाना क्यूँ नहीं चुग सकते???’

    ...दोस्तों! मैं मनुष्य समाज का अकेला प्रतिनिधि था वहाँ

    मैं शर्म से गड़ रहा था...आँसू अविरल बहने लगे थे।

    उनके लेक्चर के बीच मैं कैसे जाऊँ कैसे कहूँ

    कैसे बताऊँ कि मनुष्यों ने सफ़लतापूर्वक

    बहुत से वनों को नष्ट कर दिया है

    युद्ध समर्थक लोगों ने बम–बारूद के विस्फ़ोटों से

    शहरों को काला मलबा बना दिया है

    आसमान की पवित्रता में सुराख है।

    वहाँ मनुष्य के लिए जगह नहीं

    तो परिंदों के लिए ख़ाक होगा...!!

    मैं पर्याप्त शर्मसार हो चुका था

    ग्लानी से आत्मा पिघलने लगी थी

    उनकी कक्षाएँ जारी-सी थी

    परिंदे झुँड में अब भी शोर शराबा-सा कुछ कर रहे थे...

    बहुत बड़ा बोझा था अपराध का

    उस समय सिर्फ़ मैं वहाँ था...

    मेरी आँखों में यादों के जंगल थे जलते हुए

    जलते कलात्मक और सुंदर घोंसले

    कोमल कविताएँ नष्ट की जा रही थी

    पँछियों को सीखचों में बंद किया जा रहा था

    उनके पंख क़तरे जा रहे थे...

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनोज मल्हार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए