प्रार्थना

pararthna

सुशोभित

सुशोभित

प्रार्थना

सुशोभित

और अधिकसुशोभित

    इतना कम जिया

    तब भी जाने कब ये

    असंख्य कल्प बीत गए!

    या मेरे समय का द्रव्यमान ही

    औरों से अधिक रहा होगा

    मेरे भूगोल की परिधियाँ ही

    अन्यों से विस्तृत।

    इतना व्यापक यह जीवन

    यों एक क्षण में चुक जाए

    यह ठीक तो नहीं लगता

    भगवन्।

    मृत्यु हिमवत होती है

    शिलित कर देती है हमें

    जड़ता के एक अनवरत अमरत्व में

    यह तो सत्य है

    किंतु एक क्षण में मर भी जाऊँ

    एक क्षण में चुक नहीं सकता।

    इतना संचय कर लिया है

    क्षमा ही करना इस परिग्रह के लिए।

    क्या यह संभव नहीं कि काँपती रहे प्रत्यंचा

    अनंत में तीर के छूट जाने के बाद भी?

    कि कण-कण टूटता रहे

    मेरी मृत्यु का शिलालेख

    तभी तो मुक्त हो सकूँगा?

    मर जाना तो कुछ नहीं

    किंतु मरते रहने की जिजीविषा

    जीवन से भी बड़ी है, देवता।

    अपनी ही नहीं औरों की भी

    मृत्युओं को यज्ञोपवीत की भाँति

    धारण कर सकूँ इतना संकल्प देना

    यदि पात्र समझो तो।

    और तृषा में इतना ताप देना कि

    जब एक बार अवलोक आऊँ

    जीवन का समूचा संग्रहालय तो

    आत्मकरुणा से डिगूँ नहीं।

    एक क्षण में कोई मरता नहीं।

    एक निमिष में गलता नहीं हिमालय।

    एक बार लौटकर स्वयं को विदा कह सकूँ

    प्रलय के उपरांत इतना

    अवकाश तो दोगे प्रभो!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुशोभित
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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