चील एक मँडराती ऐन हमारे सिर पर
cheel ek manDrati ain hamare sir par
कविता में के राहगीर ने कविता में के राहगीर से पूछा :
“और अभी कितना आगे तुमको जाना है?
“जिससे आगे राह न कोई,
तो फिर जाओ, जाओ
मानों पहुँच गए हो, और न पहुँचे।
अगर न होते इतने रस्ते, हुदहुद*1 हो जाता दिल मेरा
और खोज लेता मैं
रस्ता
अगर तुम्हारा दिल हुदहुद हो जाता,
तो मैं उसके पीछे-पीछे आता,
“तुम हो कौन? नाम तो बतलाओ अपना!
नहीं नाम, दौरान सफ़र के, मेरा कोई
आगे भी क्या कहीं मिलोगे?
“हाँ, हाँ बिल्कुल, खाई के इस ओर हुआँते
दो पर्वत शिखरों के ऊपर। वहीं मिलूँगा तुमको मैं”
कैसे कूदेंगे हम खाई
हम तो नहीं परिंदे, भाई!
“तो हम गाएँगे :
हम न उसको देख सकते हैं जो हमको देखता है।
देख पाता वो न हमको, हम कि जिसको देखते हैं।
फिर?”
हम नहीं गाएँगे
फिर?”
तुम मुझसे, मैं तुमसे पूछूँगा :
और अभी कितना आगे तुमको जाना है?
जिससे आगे राह न कोई,
जिससे आगे रूह न कोई काफ़ी है क्या राहगीर को
तै करने को कोई मंज़िल?
नहीं, दरअस्ल, दीख रही मँडराती ऐन हमारे सिर पर
चील एक अतिविस्मयकारी!”
- पुस्तक : प्यास से मरती एक नदी (पृष्ठ 337)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक सुरेश सलिल, कैथराइन कोहैम
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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