निर्णय

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नीलाभ

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    नहीं। अब अब कुछ भी नया नहीं लिखा जाएगा,

    तुमने सोचा था। बार-बार अपने आपको दोहराता

    रहेगा वह एक नाम। नगरपालिका आलेखों में।

    बाहर सारे नगर में तुम्हारी दुरभिसंधिग्रस्त प्रजा

    ने आग लगा दी थी। और तुम अपने इस

    अर्द्ध-प्रकाशित कमरे में बिल्कुल इसी तरह—

    इसी मुद्रा में बैठे रह गए थे।

    तुमने दूर, पेड़ों के पार, आकाश में उठते घने

    काले धुएँ को नहीं देखा था। लेकिन तुम्हारी आँखों

    में जलते हुए शहर के मकानों से उठती लपटों के

    रंग भर गए थे। या अपनी दुर्दांत शक्ति की उन्मुक्त

    सीमाओं का अनुभव।

    तुम्हें मालूम था कि वे तब भी शहर के उस

    परिचित, उस अँधियारे चौराहे पर तुम्हारे

    निर्णय की प्रतीक्षा में अपने शस्त्रों की धार

    परख रहे होंगे।

    ‘वे’ अपने झूठे नारों में, अपने नाटकीय वक्तव्यों

    में तब भी निरंतर खोज रहे होंगे तुम्हारा

    अस्तित्व।

    ‘वे’ तब भी तुम्हारी ओर से प्रतिशोध ले रहे होंगे।

    चुन-चुन कर लोगों की हत्याएँ कर रहे होंगे।

    या फिर उस आग को और भी भड़का रहे होंगे।

    तुम्हारी ओर से 'वे' जनता में फैला रहे होंगे अफ़वाहें।

    खोखले, भावना-रहित संदेश। झूठी विज्ञप्तियाँ।

    तुम उठ कर खिड़की के पास चले गए थे।

    और बाहर जलते शहर को अपनी सोच-भरी

    दृष्टि से देखते हुए तुमने कुछ याद करने की

    कोशिश की थी।

    शायद कोई नाम या चेहरा।

    या फिर बाहर खड़ी शोर मचाती भीड़ को शांत

    करने के लिए कोई उपाय। कोई भाषण।

    या धर्म-परिवर्तनों पर दिया जाने वाला

    वह सार्वजनिक और अशाम्य दंड।

    तुमने वह बचाया जा सकने वाला और अपरिहार्य

    निर्णय ले लेने का निश्चय कर लिया था।

    और तुम्हें धीरे-धीरे यह आभास हो रहा था कि

    वह निरुपाय वर्तमान क्रम समाप्त हो रहा है...

    ***

    अब तुम उस अपराजेय, उस निर्विवाद नायक

    की तरह बार-बार इस कमरे में नहीं लौट-लौट

    आते रहोगे।

    तुम्हें वर्ष दर वर्ष अपने चेहरे पर वह अपरिवर्तनीय

    और अभ्यासहीन भाव नहीं

    स्थापित रखना पड़ेगा।

    तुमको इसी तरह झूठ की मीनारें खड़ी करके

    उन पर से दोहराने नहीं पड़ेंगे वे अर्थहीन

    नाटक। या फिर संदर्भ से कटी हुई प्रार्थनाएँ।

    अथवा युद्ध आह्वान।

    तुम्हें अपने कृत्यों के लिए साक्षी बना कर

    बार-बार महल-द्वारों के सामने प्रदर्शित नहीं करने

    पड़ेंगे इतिहास-ग्रंथ। या धर्म-गाथाएँ।

    तुम इसी तरह अपने मस्तिष्क के उस नगर में

    लगातार सड़कों पर घूमते नहीं रहोगे...।

    गलियों में। अँधेरे में। खंडहर मकानों के बीच।

    या फिर गंदी बस्तियों के पिछवाड़े।

    और तुम्हें बार-बार अंधी गलियों में घेर नहीं

    लिया करेगी तुम्हारी अपनी समूह-मय प्रजा।

    ***

    और तुमने उस नई व्यवस्था की कल्पना करने का

    प्रयास किया था। उस सबकी, जो आगे लिखा जाने

    वाला था। नए आलेखों में। नए संदर्भों में।

    किन्हीं दूसरे और अपरिचित व्यक्तियों द्वारा।

    ***

    हर बार अपने अ-निर्णयों के बीच अकेला छोड़ कर

    लोग तुम्हारे साथ विश्वासघात नहीं करेंगे।

    हर बार अपने क्रांतिकारी निश्चयों के बीच तुम्हें

    छोड़कर चले नहीं जाते रहेंगे। तुम्हारी परिषद् के सदस्य।

    हर बार सिर उठाने पर तुम अपने सामने जनता के सिर

    झुके हुए नहीं पाओगे, छद्म-श्रद्धा में।

    और हर बार रात में

    ‘उन' से दूर भागते हुए तुम्हारे

    सामने वह विस्मृत होने वाला दुःस्वप्न

    नहीं आता रहेगा। नहीं।

    नहीं। अब कुछ भी नया नहीं लिखा जाएगा।

    तुमने सोचा था। बार-बार अपने आपको दोहराता

    रहेगा, वही एक अविस्मरणीय नाम। नगरपालिका

    आलेखों में। या फिर संसद-सूचनाओं में।

    और तुम्हारे ऊपर इसी तरह तना नहीं रहेगा

    वह निरंतर और अविनाश्य राजदंड।

    ***

    लेकिन तुम्हारे दिमाग़ में लगातार एक अजीब-सा

    शोर बढ़ रहा था। और तुम्हें वह 'कुछ'—वह नाम,

    वह चेहरा। या फिर उपाय। या भाषण। वह सार्वजनिक

    दंड याद नहीं रहा था।

    तुम्हें याद नहीं रहा था कि अपनी अधीर और

    उत्सुक प्रजा की माँगों के बदले में तुम नहीं दे सके थे

    अपने वे सर्वहितकारी-चमत्कार। या अलौकिक निश्चय।

    या फिर अपने पुराने और आज़माए हुए अभेद्य कवच।

    और ‘उन्होंने’ तुम्हारे सारे जनाक्रांत नगर को

    दुरभिसंधियों में व्यस्त कर दिया था। शहर में

    जगह-जगह आग लगवा दी थी।

    तुम्हें याद नहीं रहे थे वे अद्भुत मंत्र।

    या भव्य शब्द। या फिर भीड़ को संतुष्ट करने वाले

    सस्ते मदारियों के आकर्षक बोल।

    और तुमने अपने आपको धीरे-धीरे राजद्वार के नीचे

    से निकलकर महल के बाहर जाते देखा था।

    ***

    बाहर लोगों ने तुम्हारे चेहरे का नक़ाब बनाकर

    उसके पीछे से अपने-अपने वक्तव्य देने शुरू कर दिए थे।

    बाहर लोगों ने अपने-अपने मंचों पर स्थापित कर

    दी थीं तुम्हारी वे प्रभावशाली मूर्तियाँ।

    लेकिन तब तक शायद तुम्हारा अपना चेहरा भी

    अपना नहीं रह गया था।

    और तुमने अपने आपको उस क्षण दहकते मकानों

    की रोशनी में धीरे-धीरे ख़त्म होता देख लिया था।

    ***

    उन्हें मालूम था कि वे अब भी—उसी चौराहे पर

    तुम्हारे निर्णय की प्रतीक्षा में अपने शस्त्रों की धार

    परख रहे होंगे। धैर्य खोते हुए।

    ‘वे’ अपने नारों में, वक्तव्यों में अब भी लगातार

    तुम्हारा अस्तित्व खोज रहे होंगे।

    ***

    तुम्हें मालूम था कि वे अब भी ख़ुद को तैयार

    कर रहे होंगे। तुम्हारे प्रतिशोध के लिए।

    लेकिन इसके बावजूद कि तुम ‘उस' को,

    उस वीभत्स, अनाहूत, उस बर्बर चेहरे को देखने

    के लिए उत्सुक थे।

    तुम ‘उन का सामना करने में अपने आप

    को असमर्थ पा रहे थे। या फिर हताश।

    और तुम लौट कर महल के अपने उसी निरापद

    गलियारे में चले गए थे। तुमने अपने आपको अंदर

    बंद कर लिया था।

    बाहर शोर बढ़ रहा था...

    सारे शहर में आग फैल गई थी...

    ***

    तुम उस एकांत में फिर से ढूँढ़ने लगे थे—नए

    जीवन के संदर्भ। नई व्याख्याएँ। या नए वक्तव्य।

    नई संभावनाएँ। या फिर 'वह'—जो आगे लिखा जाने

    वाला था। नए आलेखों में। जो तुम्हें याद नहीं

    रहा था। और जिसकी तुम्हें अपने

    आपके लिए बहुत आवश्यकता थी।

    तुम पुराने आलेखों और विज्ञप्तियों से निकाल कर

    बनाने लगे थे फिर से शहर के नए नक़्शे।

    नई योजनाएँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कुल जमा-1 (पृष्ठ 35)
    • रचनाकार : नीलाभ
    • प्रकाशन : शब्द प्रकाशन
    • संस्करण : 2012

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