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नींद उचट जाने पर

neend uchat jane par

प्रवीण पण्ड्या

प्रवीण पण्ड्या

नींद उचट जाने पर

प्रवीण पण्ड्या

और अधिकप्रवीण पण्ड्या

    आँखें मूँदकर सोए शहर के

    दीये सो रहे हैं

    केवल मेरी दोनों आँखों में नींद नहीं है।

    क्षणभर बायीं करवट से

    एक क्षण दाईं करवट से

    अपनी देह को सुलाने की चेष्टा करता हुआ मैं

    परास्त हो चुका हूँ।

    यह भी अच्छा हुआ, क्षण के पश्चात्।

    अब देख पा रहा हूँ रात को निकट से।

    कभी नींद का उचटना भी अच्छा होता है।

    एकबार मोर की कूकों को जोड़ता हूँ

    कुत्तों की भूँक के साथ।

    असङ्गत भी सङ्गत हो जाते हैं

    और छूट पड़ते हैं सङ्गत।

    कितने कितने नहीं होते हैं इस तरह के उत्प्रेक्षण—कल्पना के उड़ान

    दीर्घ से दीर्घ हुए जाते समय में।

    बहता है वायु में मन

    और मन में वायु।

    सब वर्तमान भूत हो जाते हैं

    और भूत खड़े हो जाते हैं वर्तमान होकर।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रवीण पण्ड्या
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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