नहीं करेगा कोई तुम्हारी बात

nahin karega koi tumhari baat

प्रवासिनी महाकुड़

प्रवासिनी महाकुड़

नहीं करेगा कोई तुम्हारी बात

प्रवासिनी महाकुड़

और अधिकप्रवासिनी महाकुड़

    नहीं करेगा कोई तुम्हारी बात—

    बाँटेगा तुम्हारा दुःख,

    तुम्हारी जीवनी पर सभाओं में...

    होगी नहीं चर्चा।

    कोई प्रामाणिक चलचित्र भी,

    तुम पर...

    नहीं बनाएगा कोई निर्देशक

    फ़िल्म महोत्सव के लिए;

    और किताब तो

    बिलकुल ही नहीं लिखी जाएगी...

    पर बार-बार जन्म लेती हो

    बेटी, प्रेमिका, पत्नी और माँ बनकर—

    दुनिया में अपनी छोटी-सी दुनिया बसाकर,

    लगी रहती हो सारा दिन!

    तुम्हारे जीवन की अंधेरी गली में

    कोई व्यक्ति प्रकाश की रेखा बनकर—

    तलाशता हो शायद

    अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर!

    तुम्हारी ओढ़नी-

    अथवा बुरक़े की ओट से,

    छलछलाई आँखों में उभरता है...

    तुम्हारे जीवन का उलझा चित्र।

    तुममें से हो सकता है कोई

    देवकी या मदर मेरी,

    दे सकती थी मानवता को

    कोई यीशु अथवा कृष्ण!

    या फिर बन सकती थी—

    दूसरी मीस कुंतला कुमारी

    अथवा महादेवी, या कोई बनती हब्बा ख़ातून;

    रचती गीत, कविता और—

    पढ़ती उपन्यास अथवा गाती भजन!

    नहीं करेगा कोई तुम्हारी बात—

    तुम्हारी बात कर सकती है

    सिर्फ़ प्रवासिनी ही।

    क्योंकि वह दुःख, राग-वैराग,

    जन्म-मृत्यु, दुःख-दर्द...

    और मान-अपमान जैसे

    जीवन के विविध पर्यायों को—

    भोगती रही बीते तीस वर्षों से;

    अपनी इस आवेग भरी क्षीण देह में...

    सिर्फ़ इसी जन्म में नहीं,

    जन्म जन्मांतर से।

    स्रोत :
    • पुस्तक : समकालीन ओड़िया कविता (पृष्ठ 101)
    • रचनाकार : गुरु महांति
    • प्रकाशन : भारतीय साहित्य केंद्र
    • संस्करण : 2013

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