नदी की आत्मकथा

nadi ki atmaktha

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    जब लौट आई मैं कोलकाता के बाबूघाट से

    तो देखा नदी ने लिख दी थी अपनी आत्मकथा

    मेरे दुपट्टे के किनारों पर अपने जल से

    पढ़ रही हूँ आत्मकथा नदी की इन दिनों

    तो उतर रही है एक नदी मेरे भीतर भी

    नींद की नौका अक्सर ले जाती है मुझे हुगली पार

    लौटने से महज़ कुछ घंटों पहले भी गई थी घाट पर

    जब फिसलकर गिरी थी सीढ़ियों पर घाट के

    मेरी आँखों से छलका जल जा मिला था नदी में

    और चखा था नदी ने मेरे दुखों का स्वाद

    अब कुछ बूँद बनकर बह रही हूँ मैं भी नदी के साथ

    साझा है यात्रा में हमारा परस्पर अंतर्जलीय दुःख

    नदी महज़ नदी नहीं, एक प्रांत है, हर लहर उसका जनपद

    निकल जाना चाहती थी बैठ डिंघी में किसी रात निरुद्देश्य

    जैसे बहता रहता है नदी पर केले के पत्ते पर रखा नैवैद्य

    कौशिकी अमावस्या की अगली सुबह काली पूजा के बाद

    किया है नालिश अपनी आत्मकथा में नदी ने धर्म के ठेकेदारों का

    कि उनके व्यर्थ के कर्मकांड का बोझ सहना पड़ता है उसे

    और लिए धरती का कचड़ा वह क़ूद रही है समंदर में

    कर रही है वह कई सदियों से प्रायोजित आत्महत्या इस प्रकार

    किंकर्तव्यविमूढ़ नदी नहीं दे पाई जवाब आज तक

    भूपेन हजारिका के गीत का 'ओ गंगा बहती हो क्यों...'

    तैरता है गंगा का संगीत हुगली के पानी में

    गंगा का स्थायी है, अंतरा हुगली का

    करती हूँ नदी को याद मैं इतना इन दिनों

    नहीं किया होगा भगीरथ ने भी स्मरण उतना गंगा का

    धरती पर होने के लिए अवतरित

    लंबी होती है आत्मकथा हमेशा ही किसी मंत्र की अपेक्षा

    बाबूघाट के सुनहले जल पर ख़ूब दमक रहा था आसमान

    उसी आसमान में विचरता है मेरी स्मृतियों का राम चिरैया

    उस राम चिरैया के होंठों के बीच है दबा हुगली का संसार

    उस संसार पर शोध कर रहे हैं इन दिनों देश के वैज्ञानिक

    मेरी स्मृतियों के पाँव सने हैं हुगली की रेत में अब भी

    जबकि मैं बैठी हूँ देश की राजधानी के पास छोटे शहर में

    जहाँ सिटी पार्क में बैठ किसी नीलकंठ को सुना रही हूँ

    नदी की आत्मकथा; नीलकंठ सुनता है, कुछ नहीं कहता

    एक रात नींद की नौका पर सवार मैं फिर उतरी हुगली पार

    नदी के जल को छूकर पूछा, ‘तुम्हें ठीक किस जगह दर्द है?'

    नदी ने कहा इशारों में—रेत पर, सुंदरी के पेड़ों की जड़ के पास

    बची हुई हिलसा मछलियों की छटपटाहट के ठीक मध्य

    हुगली के दुःख से मलिन है बांग्लादेश की पद्मा

    पद्मा की हिलसा मछली गाती है हुगली की हिलसा का विरह

    गंगा का कोई मज़हब नहीं है

    हिंदू हो या मुसलमान, मिटाती है प्यास सभी की

    नहा सकता है कोई भी इसके जल में

    और यह बनी रहती है पवित्र

    नहीं लिखा गया कोई मंत्र इसके शुद्धिकरण के लिए

    लौट ही रही थी मैं कि मेरे पाँव पखारती नदी ने कहा—

    ‘बचा लो मुझे, जो करती हो प्यार, मुझे रहना है ज़िंदा’

    देखा मैंने शहर की गंदगी को नदी में मिलाते नलिका को

    क्या कहती, चुप ही रही और ख़ूब हुई शर्मिंदा

    उसी क्षण पढ़ा था मैंने मोबाइल में अंतर्जाल पर

    जल-प्रदूषण पर हुए शोधों के विषय में

    और पाया था कि खेल रहे हैं जल वैज्ञानिक

    पृथ्वी पर कबड्डी का खेल अंधकार में

    ग़ैर सरकारी संगठन बेच रहे हैं दुःख अलग-अलग मंचों पर

    कि नदी का दुःख ही है उनका प्रिय व्यवसाय

    हम किए जा रहे हैं प्रदूषण से प्रणय

    और किए जा रहे हैं वहन प्रदूषण प्रणय के साथ

    बता रहे हैं सुंदरवन से चलकर

    कोलकाता तक पहुँचे सुंदरी के पेड़

    कि जाह्नवी इन दिनों लौटना चाहती है स्वर्ग

    धरती पर जाह्नवी जहन्नुम की साक्षी है!

    रोती है गंगा आलमगीर मस्जिद के बाहर; अल्लाह नहीं सुनते

    बिलखती है हुगली कालीघाट पर; देवी रहती है मौन

    कर तपस्या भगीरथ ने गंगा को बुलाया था धरती पर स्वर्ग से

    धरती के हम मानव-मानवियों का श्रम उसे बना डाले ‘स्वर्गीय’!!

    नींद की नौका, जो ले गई थी मुझे बाबूघाट पर हुगली किनारे

    छोड़ गई है मुझे भोर की छोर पर

    अनुसरण करते हुए सूरज की स्वर्ण-रेखाओं का

    घेर रखा है एक अपरिचित मौन ने मुझे इन दिनों

    कि नदी ने अपनी आत्मकथा में छोड़ रखे हैं कुछ पन्ने रिक्त!

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुलोचना
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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