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मुक्ति के तुरंत बाद

mukti ke turant baad

धूमिल

अन्य

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धूमिल

मुक्ति के तुरंत बाद

धूमिल

और अधिकधूमिल

    हवा हताश सर्पिणी की तरह फ़न पटक रही थी

    और काँपता हुआ अंधकार सुनाई पड़ता था मौत की दाढ़ों में

    जैसे फँसा हुआ रुदन।

    यातना के अपने स्वाद होते हैं साथियो!

    चमड़े पर बजती हुई सनसनी में

    ज़जीरों का सपना अपना मोर्चा छोड़ गया था

    और मैं यहाँ था अंधे कुएँ से बाहर : मुक्त और नि:संग

    मौत और हथेली के बीच फ़र्क़ तय करता हुआ।

    और तब। पहली बार दूर से आता हुआ आदमी। एक पूरा देश

    लग रहा था

    क्या मैंने पेड़ की आत्मीयता की बात की

    क्या मैंने कहा कि धूप माँ की गोद-सी गर्म थी

    क्या मैंने कहा कि थरथराती हुई ज़ुबान

    डबडबाई आँख में बदल गई थी

    नहीं मैंने ऐसा कुछ नहीं किया

    घाव की अपनी ख़ामोशी होती है साथियो!

    मगर मैंने सहसा महसूस किया कि

    लहू का एक क़तरा

    गेहूँ के दाने में गुनगुना उठा है

    और इतिहास के मोड़ पर

    एक ज़िंदा परछाईं गहरा गई है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कल सुनना मुझे (पृष्ठ 60)
    • रचनाकार : धूमिल
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 1999

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