मुइल जीवन
muil jivan
पड़ाइत छी, पड़ायल चल जाइत छी
हमरालोकनि अपना लेल अपनासँ,
अपन परिवार, घर-आङन, गाम-नगर,
अपम देश कोशसँ पड़ायल चल जाइत छी हमरालोकनि।
हमरालोकनि बेचि लैत छी एक चुटकी नोनक खातिर
जीर-मरीच-धनी, मरिचाइक बराबरि,
सागक दोबर, भाँटाक डेढ़िया,
बेचि लैत छी अपन अस्तित्वकेँ अपना लेल;
आ, गरदनिमे दसटा पजेबा, डाँरमे मनुख भरिक उक्खड़ि,
पयरमे मोन-दस मोनक बटिखारा बान्हि,
हाथमे हथकड़ी, जिह्वापर काँटी, जाबी लगाकऽ मुँहपर;
अतल जल-राशिमे कूदिकऽ पड़ा जाइत छी।
पड़ा जाइत छी हमरालोकनि अपनासँ
आ, अपनहिमे बौआइत छी—गामक हाट आ नगरक बाजारमे
करैत छी चीत्कार जन-कल्लोलक तरंगमे,
तकैत छी अपन आकृति
मिलक चिमनीमे, चकचौन्हीमे फूटल आँखियेँ,
पीबिकऽ भरि बोतल।
आ देखैत छी इनार-पोखरिमे डुबैत युवतीकेँ
अपन सखी-बहिनपासँ चोराकऽ,
पड़ाइत युवककेँ गामसँ पटना आ कलकत्ता।
भा, पड़ाइत छी, पड़ायल चल जाइत छी हमरालोकनि
ठाढ़ भेल जीबा लेल
आ, जीबैत छी हमरालोकनि मुइल
मुइल आ, मरैत छी जीविते।
- पुस्तक : मैथिलीक नव कविता (पृष्ठ 75)
- संपादक : रामकृष्ण झा ‘किसुन’
- रचनाकार : हंसराज
- प्रकाशन : सांस्कृतिक विभाग, सुपौल, बिहार
- संस्करण : 1971
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