Font by Mehr Nastaliq Web

कविताक आह्वान

सुरेन्द्र झा 'सुमन'

अन्य

अन्य

और अधिकसुरेन्द्र झा 'सुमन'

    अरुण किरण-रेखासँ जागल जग-मग नवल प्रभात

    सिहकय लागल नहु-नहु खेलइत संगी सुखद बसात

    हँसइत फूल द्वारिपर झुलइत नचइत सरिता-कूल

    जल-तरंगपर चकमक करइत, पथपर कण-कण धूल

    कोर बैसि सूनल हम प्रथमे गुन-गुन स्वर्गिक गान।

    मायक ममतामे कविता की करइत अछि आह्वान?1॥

    सहजहिं मलय-समीर आबि पुलकित कयलक उद्यान

    कुसुमित कली-कलीक सुरभिवश चञ्चरीक चित प्राण

    आमक शाखा आलिङ्गित कय कुहकय कोकिल-कीर

    नव वसन्त यौवनसँ मातल जड़-जंगमहु अधीर

    नख-शिख कुसुमित लता-कुञ्जमे बैसलि प्रणय-विभोर

    प्रेयसीक नयनक संकेते कविता करइछ सोर॥2॥

    भीजल थल आर्द्राक, आर्द्र लोचन-जलदे बहि नोर

    हिम भेल द्रवित, नदीक व्यथासँ भरि अयले दृग कोर

    परदेशीक प्रेयसी उन्मन दूर जकर चित-चोर

    आँखिक मोतीसँ दिन गनइत रजनी कयलक भोर

    सूचित करइत पहुक आगमन, पाँती पतिक पठाय

    आशा-बँधबय 'धीरज धरु धनि' कविता सखी सुनाय॥3॥

    घर-घर गौरी करथि तपस्या पूजि तुषारी प्रात

    वर वौराह उमाक देखिके होइछ उर आघात

    मुदित किन्तु हिमवन्त विकल-मन मैना स्नेहक स्रोत

    जनमि जनक-जननीक मैथिली घर-घर करथि इजोत

    शकुन्तला आश्रमकेर शोभा पति-गृह आबि विभोर।

    कण्व गौतमीके कनबथि, कविता पोछथि दृग-नोर॥4॥

    कुञ्ज-पुञ्जसँ कोलाहल सुनि जन-पथ देखि समक्ष

    हर-कोदारि-खुरपीक पुजारी अर्ध-गंग्न कत लक्ष

    क्षुधित पिपासित रक्त शुष्क कय जोति कोड़ि जी दाबि

    सुजला सुफला जनिक कठिन श्रम गीत वन्दना गाबि

    कृषक श्रमिक केर श्रमजल चुबइत पावन गंगा-नीर।

    साग-भात लय ठाढ़ि खेतमे कविता कमला तीर॥5॥

    पति परलोक बसल, घर उजड़ल, चिन्तित चित्त अधीर

    मास-माससँ जकर कमासुत सुत ज्वर-गलित शरीर

    जकर अन्नपूर्णा भसिऐले कौशिकीक मझधार

    जीवन-तटपर एक शब्द सुनइछ जे हाहाकार

    ओहि अनाथ विधवाक अश्रुहिक समरो उमड़ल बाढ़ि।

    करुण क्रन्दने कविता कनइछ कौशिकीक तट ठाढ़ि॥6॥

    रस-तीतल बीतल वय, सहसा कटु जीवन-संघर्ष

    छोड़ि फूल, मूलक अन्वेषणमे बूझल उत्कर्ष

    छाया छोड़ि, मुक्त आतपमे जीवन गति-शील

    नीचाँ धरती माता, ऊपर निर्मल-अम्बर नील

    परवंशताक पाश कटइत जीवन बंदीक अधीर।

    बलिदानक शूलीपर झुलइत कविता गाबय गीत॥7॥

    पूर्वाञ्चलसँ सुन्दर वनक विहंगम उड़ि-उड़ि आबि

    सिन्धु-संगिनी राबी कनइछ खण्डित रसना दाबि

    उदित भानु रजनी-तम चिरइत नव-नव लय आलोक

    किन्तु हमर अछि रूप विरूपित, हर्षहु बोरल नोर

    एखनहु धर बिस्पी-आङनमे मिथिला बहबय नोर।

    कविता मिलित कण्ठसँ गबइछ 'हमर दुखक नहि ओर॥8॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 32)
    • संपादक : चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’/ शंकरदेव झा
    • रचनाकार : सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2012

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY