मिल्कियत

milkiyat

शालिनी सिंह

शालिनी सिंह

मिल्कियत

शालिनी सिंह

और अधिकशालिनी सिंह

    सुदूर गाँव में बसी ब्याहताएँ

    उलाहनों के बीच

    थामे रहती हैं चुप की चादर

    सहमी-सी सुनती रहती हैं बोल-कुबोल

    माँ के संस्कारी को सींचने के उपक्रम में

    दिन की उठा-पठक के बीच भी

    निकाल लेती हैं शाम के धुँधलके से

    ठीक पहले का कुछ वक़्त अपने लिए

    सिंगार की परत चढ़ाकर इठला लेती हैं मन ही मन

    उनका नाम गुम हो चुका है पति के नाम की ओट में

    पुकारा जाता है उन्हें फलाने की दुल्हन के नाम से

    नाम जो पहचान है, वह भी तो नहीं मिली बिरसे में इन्हें

    इन्हें ठीक-ठीक याद अपने जन्म की तारीख़

    कि कोई कोरी बधाई ही दे देता इन्हें

    इसी दु:ख की गीली ज़मीन में वे रोप लेती हैं कुछ गीत

    दु:ख का ज्वार जब उमड़ पड़ता है मन में

    तो फूटने लगते है बोल

    खुल जाती हैं भरे मन की गाँठें

    जब गाती हैं :

    ‘सास मोरी मारे ननद गरियावे’

    ख़ाली कर लेती है अपना मन

    जो जाने कब से ख़ाली होने को व्याकुल है

    इन गीतों के रूपक

    उनकी पीड़ा निकलने का ज़रिया थे

    इनके हिस्से अक्सर नहीं आतीं

    प्रसव-पीड़ा में पुचकारने वाली सासें

    बेटी के पैदा होने पर साथ खड़े होने वाले पति

    घर, खेत, खलिहान

    इनका कुछ नहीं होता

    तब इनके हिस्से आते हैं यो गीत जो ये गाती हैं

    यही होते हैं इनकी मिल्कियत जो ये आगे बढ़ा देती हैं!

    स्रोत :
    • रचनाकार : शालिनी सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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