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मेरा घर

mera ghar

सुनील झा

अन्य

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सुनील झा

मेरा घर

सुनील झा

और अधिकसुनील झा

    बस्ता-बिछावन बाँधकर

    निकला था जब

    घर से पहली बार

    घर था मुझमें तब भरा-पूरा सजीव-साकार

    किताबों की तरह ही एहतियात से बाँधा था

    घर की मीठी महक को

    समेटा था ख़ुद में अपने ही घर को

    कई-कई बार आते-जाते

    मेहमान बन गया अपने ही घर का

    जाने कब फिर

    विदा होते हर बार

    थोड़ा-थोड़ा टूटता गया घर मेरे अंदर

    धागा-धागा खुलती गई

    घर की बुनावट मुझ में उधड़कर

    बूढ़ी होती गईं घर की दीवारें

    उम्मीद लगाए

    आवाज़ें घर की बंद हो गईं

    पहुँचनी मुझ तक

    धीरे-धीरे खो-सी गई

    घर के चूल्हे की सौंधी महक।

    अलग-अलग शहरों की भीड़ में

    खो गया अपना ही शहर

    दुनिया भर में भटकते

    जाने कब

    गुम हो गया घर मेरे अंदर

    अपने ही शहर में

    नया आया-सा हूँ अब

    अपने ही घर में पराया-सा हूँ अब

    ढूँढ़ता रहा

    हर नए शहर में घर को अपने

    बिखरा हुआ है

    मेरा घर

    मेरे अंदर ही टूटकर।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुनील झा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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