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मेघमुक्त्त मन की कविता

meghmuktt man ki kawita

अनुवाद : श्रीवत्स करशर्मा

चक्रधर राउत

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चक्रधर राउत

मेघमुक्त्त मन की कविता

चक्रधर राउत

और अधिकचक्रधर राउत

    विचित्र-वर्ण के स्रोत की तरंग भेद कर

    सपने की नाव

    एक-एक हो आकर जब लंगर डालती

    जीवन के घाट में

    स्मृति के सहस्र मोड़

    गली और मरघट लांघ कर

    चेतना के उपकूल में मैं गिनता

    अनगिनत समय की तरंग;

    फाल्गुन की शाम को वधू-सम

    अपना आँचल हिलाकर

    मंथर पदपात से चला आता

    इस रात का आसन्न अँधेरा

    आँखों के आसमान में धीरे सतेज कर

    तीक्ष्ण मेरी दृष्टि का प्रदीप

    मैं देखता मुग्ध मेरा

    प्रेतायित प्रतिरूप

    अपने आईने में!

    यकायक किसकी काली छाया नाच उठती

    एक बार मेरे सामने

    चौंककर मैं पीछे मुड़ कर देखता

    अति संतर्पण से

    एकांत में बैठ तुम

    कामना के कैंद्रिक बिंदु पर

    अकारण जगा देती मन में मेरे

    शत प्रश्नवाची(?)

    इशारे से कहती हो

    चाँदनी रात, झरना और फूल खिलने की बात

    मैं सोचता तुम मेरे स्वप्न और वास्तव का

    योगायोग फल!

    इस तिमिर तीर्थ में एक बार अवगाहन कर

    गा गाकर इस रात की

    अश्लील कविता

    वासना विमुग्ध मन तैरने, नाव खोल देता

    रूप के सागर में।

    अबोध आसमान के कूल लांघकर

    झर आता चाँद का झरना

    सुनसान इस रात का रूप-लोभी

    आलोक प्रयासी

    उड़ जायेंगे इधर-उधर

    हम दोनों बिहंगम

    पंख फैला कर, डैने के कंपन से

    फौलादी दिल में सृष्टि कर

    शत-शत आह्लाद और

    आवेग की झड़!

    फाल्गुन फूल-सभा इस रात की

    इतनी चाँदनी इतना मोह

    सब रूप चले जाने के बाद

    निदाघ की उत्तप्त सिकता पर

    अनायास पैर शिथिल हो जायेगा

    जीवन-वृंत से धीरे परमायु

    पुष्प झड़ जाएगा

    तन-मन का तट छूकर अकस्मात् जाने से

    निदारुण अकाल वैशाख!

    उस वक्त्त निःशेष हो जायेगा प्राण-मधुकोष

    उड़ उड़ जायेगा पराग—

    तरंगायित इस देह की नक्काशी

    झर कर समायेगी मिट्टी में

    भूलकर मेरी सत्ता, बहुदूर बिंदु होकर

    समा जायेगी आकाश की नीलिमा में

    तुम जब धूल हो के समा जाओगी

    धरित्री के एक ही अणु में!

    मैं बनूँगा सीमाहीन नीला नभ

    तुम होगी सर्वंसहा

    इस माटी की धरा :

    जान तुम्हारी मन की बात, मैं गिरूँगा धीरे

    होकर, एक बूँद वर्षा का जल;

    सृष्टि की महिमा से, पुलक से जाग उठेगी

    कोटि मन-प्राण भर

    अपूर्व झंकार

    खिलायेगी मधु कली सुख और अनुराग का

    रूप, रस वर्णों से भरा

    सत्य, शिव, शांति के वृक्ष में!

    अनगिनत मन में

    प्रसन्नता का झरना बन

    कलकल नाद से झर जाऊँगा सिर्फ़

    प्यार का पल्लव हिलाकर—

    सिहरन जगाओगी

    तुम प्रति प्राणों के अंतराल में!

    समय की सीमा अतिक्रम कर

    जन्म-मृत्यु-वृत्त में

    द्वैत तान से नाचते रहेंगे

    वृत्ताकार में

    दूर कर सब ‘व्यवधान’;

    हर एक के मन में हमारा

    आँखमिचौनी सदा

    ऐसी चलती रहेगी

    सिर्फ़ आज नहीं युग-युग तक!!

    स्रोत :
    • पुस्तक : मेघमुक्त मन की कविता (पृष्ठ 68)
    • संपादक : दयानिधि राउत
    • रचनाकार : चक्रधर राउत
    • प्रकाशन : प्राणीमंगल समिति, भुवनेश्वर
    • संस्करण : 2000

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