लोक कहलक-भाग्य अइ बहु प्रबल
तैं स्त्री-स्त्री अछि, पुरुख-पुरुख
जेना फूल-फूल, काँट-काँट
इहो सुनल जे खपटा खा-खा
बच्चा जनमयबाक काज स्त्रीक अछि
पुरुखक काज भेल पति आ पितृत्वक भाव-वहन
कन्या की बनि सकैत अछि?
वधू, पत्नी, माय, दादी...
नहि अछि तँ केराक थम्भ वा फूल जकाँ
ओकर अपन अस्तित्व
सर्वनाम बनल
केरा-फूलक मध्य व्यर्थ उगल
केराक अस्तित्वहीन छोट-छीन फल
जकर तीमनो नहि बनि सकैए
माटिक काँच दीपमे जराओल
बाती जकाँ जरैत स्त्रीगण
काँच दीपपर ढारल पानिसँ
फेर माटिमे मीलि जाइत
स्त्रीगण!
माटिक काँच दीप माटिए अइ—
आबामे राखबाक प्रयोजने की?
संझा दीप जरबैत स्त्रीगण
सार्थक करैत छथि काँच दीपकेँ
तेल-बातीसँ सजा कऽ
आ प्रसन्न भऽ श्रद्धावनत होइत छथि
जे लेसि देलीह ओ भगवतीक सोझाँ
दीप,
आब भरि देथिन भगवती
हुनक खेत, खरिहान
बनौने रखथिन्ह हुनकर
माँगि-कोखि
आ सार्थक बुझैत रहतीह अपनाकेँ
दीप तेल बाती जकाँ!
- पुस्तक : इजोरियाक अङैठी मोड़ (पृष्ठ 56)
- संपादक : माला झा
- रचनाकार : विभा रानी
- प्रकाशन : किसुन संकल्प लोक
- संस्करण : 2004
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