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मनहार का फूल

manhar ka phool

बलराम कांवट

बलराम कांवट

मनहार का फूल

बलराम कांवट

और अधिकबलराम कांवट

    कई बरस पहले

    नदी किनारे चलते हुए

    मैंने तुम्हें एक फूल दिया था

    पाँच रंगों वाला

    नायाब

    चमकीला

    बनास की घाटियों में खिला

    मनहार का फूल

    मैंने कहा भी था

    सँभालना

    यह दिनों दिन धरती से कम होता जा रहा है

    आज वह पूरी तरह ख़त्म हो चुका है

    मेरी गौरा

    उसे ढूँढ़ो!

    ढूँढ़ो उसको

    कहाँ जाएगा

    यहीं कहीं रखा होगा घर में

    किसी पुस्तक के अंदर छिपाकर तुमने

    मत पूछो किस काम आएगा बस ढूँढ़ो

    जैसे काली घटाओं

    मेघों फुहारों और पवन पुरवाइयों में

    फिर से जी उठते हैं

    आकाश के नीचे सतरंगी सर्प

    यह भी कभी

    अनुकूल जल और वायु पाकर

    खोल सकता है अपनी आँख

    सात सही

    आख़िर पाँच रंग तो इसके भी पास हैं

    तो रखेंगे इसे सहेजकर हम

    जैसे किसान रखते हैं

    बरसों-बरस घड़ों में बीज

    और करेंगे प्रतीक्षा

    इसके लिए सही हवाओं सही पानी

    सही नक्षत्रों की

    अगर लौटकर आए कभी

    धरती के दिन तो शायद

    इसमें भी लौटें नए प्राण

    फूल से बनेंगे फूल

    एक बार फिर जी उठेंगी

    बनास की घाटियाँ

    एक बार फिर

    कोई रखेगा किसी के मुलायम हाथों में वही

    नायाब चमकीला पचरंगा

    मनहार का फूल!

    मेरी गौरा उसे ढूँढ़ो!

    स्रोत :
    • रचनाकार : बलराम कांवट
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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