लँगड़े सियार

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जी. शंकर कुरुप

जी. शंकर कुरुप

लँगड़े सियार

जी. शंकर कुरुप

और अधिकजी. शंकर कुरुप

    एक

    तैमूर की पताका की छाया से भयभीत होकर

    विमूढ़ बना मध्य एशिया जब काँप रहा था,

    तब चमू-समूह के मूर्खतापूर्ण और मदमत्त

    पाद-पतनों से कुचला जा रहा था—

    “पूर्ण-खंड का गुलाब-बाग नाम से

    अपने सौंदर्य के कारण विश्व-विख्यात पारस।

    दो

    श्यामल द्राक्षाफलों से समलंकृत सरिता-तटवर्ती

    वृक्ष-पंक्तियों के मर्मर स्वर,

    और जप-माला फेरने वाले सूफियों द्वारा

    प्रचारित जगन्मिथ्यावाद,

    कैसे रोक सकते हैं मनुष्यरूपी भेड़ियों को,

    जब वे अपनी तलवाररूपी जिह्वा लालच के साथ लपलपाते हैं?

    शाह के किरीट-रत्न भी काँप उठे,

    मानो दूर्वादल के हिमबिंदु हों!

    तीन

    पतिव्रताओं के सुवर्ण-हार

    और उनसे भी अधिक मनोरम मान-मर्यादा

    उनके पुरुषों के रक्त से सने हाथों के

    घोर कृत्यों से नष्ट होने लगी।

    अश्रुहीन नयन वा कपोल और

    खड्ग-धार से अक्षत स्तनतट अथवा

    रक्त में डूबे हुए वस्त्र

    एकदम उस देश में निःशेष हो गए।

    भयानक लहरों के जैसे लपकने वाले

    मदमत्त युद्धाश्वों से

    देश चौंक उठा। मृत्यु-गर्त में

    गिरा जैसा दिक्चक्र घूमने लगा।

    चार

    एक कवि की क़ब्र के पास जब वह

    डाकू-नेता (तैमूर) पहुँचा

    तब लगाम खींचकर उसने

    अपने काले घोड़े को हठात् खड़ा कर दिया।

    विद्युत्रूपी असि और चरणों में तूफ़ान

    लिए भीषण रक्त-वर्षा करने वाले मेघ के समान

    समस्त विश्व को कँपा देने वाले उस भयानक

    दुष्ट का दर्शन कैसे सहे कवि—

    मृत्यु के स्वयं-ग्रहाश्लेष के करों में

    विलीन हो जाने के बाद भी?

    भय को जानने वाले कवि के मुख से भी

    मन को सिहरा देने वाला तीक्ष्ण गान निकल पड़ा—

    पाँच

    नर-रक्त में डुबकियाँ लगाकर आह्लादित होने वाले

    हे नरक के शैतान! तुम इतिहास के अभिशाप हो!

    धुआँ जैसी सर्वत्र व्याप्त हो रही है दुर्गंध फैलाने वाली तुम्हारी

    कीर्ति की कालिमा, हे श्वासवान श्मशान!

    जिसके सब पत्ते कीड़ों ने खाकर नष्ट कर दिए हों

    उस एरंडक के जैसा एशिया-खंड दीनदर्शन हो गया है।

    छि! तुम वीर हो! अधार्मिक युद्ध में

    रक्त बहाने वाला तुम्हारा करवाल देखकर घृणा होती है।

    सटाएँ जृंभित किए हुए केसरी-प्रवीर

    जहाँ पहले स्फुट-पौरुष होकर विचरण करते थे

    वहाँ लँगड़े सियारों के हुआ-हुआ कर विचरण करने के दृश्य को

    रोकने के लिए क्या काल के हाथ काफ़ी लंबे नहीं हैं?

    छह

    इतिहास-वीथी में तैमूर एक

    सूखे पत्ते के जैसा गिरकर सड़ गया;

    हत्या और डकैती करवाने वाली साम्राज्य-लिप्सा

    ही प्रतिदिन नया-नया वेष बदलती जाती है।

    घाव को सुखाते हैं अधिक घायल करने के लिए,

    ज्ञान ढूँढ़ते हैं ज्ञान को नष्ट करने के लिए,

    सीधे पैरों पर चलने वाले आज के

    शव-लोभियों की आत्मा लँगड़ी है।

    काश! इनके हुआए नए-प्रस्तावों का

    अंत करने वाला प्रभात जाता!

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 659)
    • रचनाकार : जी. शंकर कुरुप
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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