छोटी सीता

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वल्लत्तोल

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    1. एक रम्य भवन के बरामदे में, मध्याह्न के समय, एक कोमल-कंठी वेश्या-कुमारी आनंद के साथ रामायण पढ़ रही थी। उसे सुनने के लिए मानो भगवान् भास्कर आकाश में निश्चल खड़े हो गए।

    2. उस सुंदरी के मुख-चंद्र से निकला हुआ ऋषिकाव्य-रूपी अमृत घोर मध्याह्न के आतप को भी शीतल चन्द्रिका-श्री बनाता हुआ उस प्रासाद के प्रांगण में प्रवाहित हो रहा था।

    3. उस बालिका की बूढ़ी नानी पास के ही एक पलंग पर आलस्य के साथ एक करवट, थोड़ी मुड़कर इस तरह पड़ी हुई थी मानो पंचशर का टूटा हुआ धनुष पड़ा हो।

    4. वह कन्या सहसा रामायण-पठन छोड़कर अपने दीर्घायत नयनों को मूंदकर किसी विचार में डूब गई और उसके कंचन कपोलों पर पुलकांकुर प्रस्फुटित हो उठे।

    5. जिस उपवन में पालतू हरिणी गाना सुनने की कामना से कान खड़े किए खड़ी थी उसके दीर्घ निःश्वास ने मंद पवन के झोंके के रूप में आकर अलकावली से अलंकृत उस बालिका के सुंदर ललाट को धीरे से चूम लिया।

    6. पिता की सत्य-रक्षा के लिए सर्वस्व त्यागकर निकले हुए पति का अनुगमन करके उत्तप्त कानन-भूमि को ही जिसने चिरकाल तक हरित मृदुल शय्या के समान बनाए रक्खा, कितना भी कष्ट देने पर जिसके सुदृढ़ हृदय को हिलाने के लिए कैलाश पर्वत को गेंद बनाकर खेलने वाले 20 हाथों में शक्ति नहीं रही, जिसके चारित्र्य-तेज़ से ज्वालामयी अग्नि भी ठंडी पड़ गई, और जिसके समान विशुद्ध रत्न इस भारत-भूमि के गर्भ से दूसरा उत्पन्न नहीं हुआ, मन से मैथिली बनकर वह कन्या, गृह में और वन में एक समान, रामचंद्र-जैसे किसी भद्र पुरुष की पत्नी के रूप में अपने मनोराज्य में विचरण करने लगी।

    7. परंतु वह नानी इस मनोराज्य-विहार में बाधक बन गई। “क्या आज इतनी जल्दी पारायण पूरा हो गया?” यह कहकर उसने अपनी दौहित्री को उस कल्पना-लोक से नीचे उतार लिया।

    8. तब उस सत्पथान्वेषिणी कन्या ने अपना मनोरथ खोलकर कह ही दिया—“काश! सीतादेवी के समान मैं भी अपना जीवन पति-प्रेम और शुद्धाचरण से पवित्र बना सकती।”

    9. हे आर्षभूमि, तुम्हारी महिमा अद्भुत है। तुम्हारी रण-भूमि में भी निष्काम कर्मयोग की भेरी गूँज उठती है—निषादों की झोंपड़ियों में भी ब्रह्म-तेज़ के दर्शन होते हैं। वेश्या-वीथी में भी चारित्र्य-सौरभ फैलता है।

    10. बूढ़ी हड़बड़ाकर उठ बैठी। इस दुर्विचार का अंकुर ही नोच फेंकना चाहिए। “मेरी प्यारी बेटी के लिए क्या सीता आदर्श है? मेरी रानी बेटी सीता से भी ऊँचे पद पर रहने वाली है। तुम्हारे चरण-पल्लवों में लोटने वाले एक-दो नहीं, सैकड़ों रावण आज इस भूमि पर होंगे।”

    11.“मेरी दुलारी! तुम्हारी माँ ने अपने प्रयत्नों से कुटुम्ब को थोड़ा ऊँचा उठाया और फिर वह हम लोगों को छोड़कर स्वर्ग सिधार गई। अब वह अपनी पुत्री को उसे आकाश तक उठाते देखे और उसका वैभव देखकर संतोष पाए।”

    12. इतना कहकर वह अपनी आँखें गीली करके तथा एक दीर्घ नि:श्वास लेकर उस बालिका के ऊपर हाथ फेरने लगी और साथ ही उसने अपने किंचित् मोटे और विवर्ण होंठों से अपने स्मृति-ग्रंथ का आख्यान भी आरंभ कर दिया।

    13. हम जो वेश्या कहलाती हैं, इस भूमि की अप्सराएँ हैं। हमारे दो ही निश्चित धर्म हैं—एक मंदिरों में जाकर नृत्य करना और दूसरा पुरुषों के हृदयों को अपने चारों ओर नचाना।

    14. नृत्यरूपी सेवा से नर्तकियों के मस्तक से जितने स्वेद-कण झरते हैं, ईश्वर के अनुग्रह से उतने ही सच्चे मोती के दाने उसके सामने एकत्र हो जाते हैं।

    15. भगवान् की सेवा के लिए लोगों द्वारा समर्पित पुष्प हैं गणिकावृन्द। उन्हें वैदिक ब्राह्मण भी मंदिर के प्रसाद के समान सादर सिर पर धारण करता है।

    16. चतुर वारांगना के लिए सभी पुरुष एक-जैसे हैं। उसके हृदय में तो राग होता है, द्वेष। वह सबको अपने में डुबाती है, परंतु स्वयं किसी में नहीं डूबती।

    17. विनयावनत होकर उस दशकंठ के प्रार्थना करने पर भी अपनी पति-भक्ति दिखाने वाली उस बेचारी के प्रति उस महान् प्रियतम ने क्या किया? जब वह पूर्ण गर्भवती थी, उस समय उसे हिंसक पशुओं से युक्त घोर कानन में ही तो छोड़ दिया था।

    18. केवल स्वार्थ को ही साधने वाले पुरुषों ने सती धर्म की यह ज़ंजीर बनाई है, जिससे वे स्त्रियों को वानरों के समान नचा सकें।

    19. परंतु, मेरी प्यारी बेटी! गणिकाएँ तो उस चारित्र्य को कामदेव के जल जाने के बाद अवशेष राख ही मानती हैं। चंदन-लेपन के योग्य नव-उरोजों में बिना सोचे उस राख को उठाकर लगा लेना!

    20. इच्छानुसार सुखानुभव करने को ही जीवन कहते हैं। परंतु सती धर्म के मार्ग पर जाने से वह नहीं प्राप्त होगा। छिः! भविष्यरूपी पेड़ को खाद देने के लिए क्या वर्तमान को सड़ा दोगी?

    21. किस उन्नति के लोभ से तुम इतनी संकुचित एक-पत्नीत्व नाम की सीढ़ी को खोज रही हो? तुम अपनी भ्रू-लताओं को तनिक-सा हिलाने के लिए तैयार हो जाओ तो बैकुंठ की सम्पत्ति भी तुम्हारे चरणों पर लोटेगी।

    22. जगत्स्रष्टा का दिया हुआ आभूषण, अर्थात् शरीर-सौंदर्य जिसे नहीं मिला, वह युवती भले ही सती-व्रत को अपना अलंकार बनाए, परंतु राजा-महाराजाओं को भी ललचाने वाली मेरी चंपक वह सुगंधहीन पुष्प बनकर क्या करेगी?

    स्रोत :
    • पुस्तक : वल्लत्तोल की कविताएँ (पृष्ठ 21)
    • रचनाकार : वल्लतोल
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1983

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