मैं तुम्हारी भूख से भयभीत हूँ
मैं तुम्हारे मुल्क से
और तुम्हारी दुनिया से
बुरी तरह थक चुका हूँ
ताज की तरह चांडाल हँसी
अपने सिर पर सजाए
तुम्हारी आत्माओं के दुर्गंधित रस्म-ओ-रिवाज
अब सहे नहीं जाते
तुम्हारे तराज़ू पर अपनी ज़िंदगी रखकर
साँसों का आवागमन देखना
बहुत ही शर्मनाक लगता है
कौन नहीं जानता कि ईश्वर तुम्हारा अश्लीलतम तसव्वुर है
धर्म सृष्टि का सबसे बड़ा घोटाला
और जाति बहुत गहरा कुआँ
जिसकी भयावहता पानी ढँकता है
मैं तुम्हारी कला से
और विज्ञान से
बुरी तरह ऊब चुका हूँ
यहाँ ख़ून को एक थूक प्रतिस्थापित कर देता है
यहाँ चीत्कार को मंदिर का कीर्तन घोंटकर बैठा है
यहाँ सत्य को संसद में टॉयलेट-पेपर बनाकर
लटका दिया जाता है
जिससे सुबह-शाम जनता के चूस लिए गए सपने पोछे जाते हैं
मैं इस देश की उस आहारनाल से आया हूँ
जिसने सदियों तलक अन्न का चेहरा नहीं देखा
मैं तुम्हारी भूख से भयभीत हूँ
मुझे बख़्श दो
मेरे उन ताल-तालाबों के लिए
जहाँ माँगुर मछलियाँ मेरा इंतज़ार रही होंगी
किसी दिलदार दोस्त के साथ
सावन को अपनी क़मीज़ बनाकर
मैं उन दिशाओं में तैरने चला जाऊँगा
जहाँ मेरी बकरियाँ भीग रही होंगी
जहाँ किसी आम के पेड़ पर
अब भी मेरा दोहत्था अटका होगा
और पास ही मेरे मछरजाल की उलझनें
मेरी अँगुलियों को गोहार रही होंगी
मुक्तिबोध के बारे में मेरी कोई राय नहीं है
मार्क्स को मैं पहचानता तक नहीं
अंबेडकर का नाम ही सुना पहली बार
अज्ञेय होना शायद तुम्हारी सभ्यता का सबसे बड़ा ईनाम है
अब मुझे जाने दो
मैं ग़ालिब ज़ुबान पर भी न लाऊँगा
और जायसी को युद्ध के निरर्थकताबोध का पहला कवि मानने की
ज़िद भी छोड़ दूँगा
मुझे जाने दो
मुझे भीरु कहो
भगोड़ा कहो
पर जाने दो
मेरे चले जाने पर मेरे गर्तवास का मतलब
शायद तुम समझ सको
शायद तुम कभी समझ सको
उस मोड़ दी गई बाँस की फुनगी की तनाव भरी थरथराहट
जिसने मुझे सिखाया था—
विनम्रता को बेचारगी में तब्दील होने से पहले
विद्रोह में बदल देना ही
ज़िंदगी का सुबूत है।
- रचनाकार : पराग पावन
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
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