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मैं रहती हूँ चीज़ों के कमरे में

main rahti hoon chizon ke kamre mein

मनीषा जोषी

मनीषा जोषी

मैं रहती हूँ चीज़ों के कमरे में

मनीषा जोषी

और अधिकमनीषा जोषी

    कभी-कभी मेरी आँखें

    इस क़दर धोखा खा जाती हैं

    कि मुझे लगता है कि कमरे के

    एक कोने में रखा हुआ

    प्लास्टिक का पौधा

    दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है

    और उसमें नई पत्तियाँ रही हैं।

    होता है कभी-कभी ऐसा

    जब काफ़ी देर तक

    चीज़ों को देखते रहो

    देखते ही रहो।

    यूँ तो मेरे कमरे में ज़्यादा कुछ सामान नहीं

    लेकिन कभी-कभी देखते ही देखते

    अचानक कमरा इतना भर जाता है कि

    मैं दफ़्न हो जाती हूँ चीज़ों के तले।

    कितनी सारी चीज़ें

    जो कभी नहीं ख़रीदीं मैंने

    लेकिन मेरे देखने भर से

    जो हो गई थीं मेरी।

    कितनी सारी चीजें

    जो खो देने के बाद भी

    बनी रही थीं मेरी।

    चीज़ें दुगनी हो जाती हैं

    उन्हें देखते रहने से

    कभी तो इनके रंग-रूप भी

    बदलने लगते हैं

    कभी चीज़ें टूट जाती हैं

    सिर्फ़ देखने भर से

    कभी खो जाती हैं

    रोज़ देखने के बावजूद

    और कभी अचानक से सारी चीज़ें

    गिरने लगती हैं मेरे ऊपर इस क़दर

    कि मुझे भागना पड़ता है

    अपना कमरा छोड़कर।

    मैं रहती हूँ चीज़ों के कमरे में

    उनकी दया पर

    और अब मुझे कोई आश्चर्य नहीं

    कि मेरे कमरे में कुछ भी नहीं

    बहुत सारी चीज़ों के अलावा।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मनीषा जोषी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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