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मैं प्रवासी मज़दूर

main pravasi mazdur

राजेश राजभर

अन्य

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राजेश राजभर

मैं प्रवासी मज़दूर

राजेश राजभर

और अधिकराजेश राजभर

    भूख से लथपथ जीवन पथ पर

    मिटने को मजबूर,

    मैं ‘प्रवासी मज़दूर’

    मेरी आत्म् निर्भरता

    ‘ख़त्म’ हो गई—

    मज़दूरी मौन हों गई!

    महामारी की हवा विषैली—

    बदल गई जीवन शैली.

    पलायन पर ‘जनसैलाब’

    बंद पड़ी बेजार ‘हवेली...!’

    आपदा और बड़ी होती,

    दिन से आगे—

    रात निकल गईं...!

    मज़दूरी मौन हो गई!

    मैं प्रवासी मज़दूर—

    मैं ‘मापता’ ज़मीन—

    समेट कर सुनहरे दिन,

    गली-गली, शहर-शहर,

    चलता हूँ रात दिन,

    कटता, मरता, गिरता हूँ—

    फ़िर भी मै ज़िंदा हूँ!

    ज़िंदगी जितकर ‘हार’ गई,

    मज़दूरी मौन हो गईं!

    मैं प्रवासी मज़दूर—

    भयभीत क़दम रह थमते—

    अब घरों पर ताले लगते,

    अपने पन की हवा निरंकुश—

    ‘झँझावत’ से कब तक लड़ते,

    जलते-जलते आग

    ‘चुल्हे’ की बुझ् गई,

    मज़दूरी मौन हों गई!

    मैं प्रवासी मज़दूर—

    मिटती अवसर की राहें—

    अधिकारों के दीप जलाएँ,

    उदासीनता—राजभवन की

    दोहरे मापदंड अपनाए,

    हमें रोकने की—दीवारें—

    बनी और कि ढ़ह गई!

    मज़दूरी मौन हो गईं!

    मैं प्रवासी मज़दूर—

    टूटते मेरे सांसो के तार

    शायद मुझ पर पड़ेगें हार,

    जीविका—जलती

    चौराहे पर—

    बेबस, बेचैन, लाचार,

    लहू धमनियों में सूखता—

    घड़ी—खड़ी-खड़ी थम गई,

    मज़दूरी मौन हों गई!

    मै प्रवासी मज़दूर—

    मेरी आत्मनिर्भरता ख़त्म हो गई...!

    स्रोत :
    • रचनाकार : राजेश राजभर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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