मैं मर्तबान हूँ
main martaban hoon
मैं हूँ संरक्षक उन सब वस्तुओं का जिसे ख़राब होने का डर है
मैं सबसे पहले नींबू के रसों से सराबोर हुआ
खट्टे-कच्चे आम मुझमें जब डाले गए
मैं आम न होकर, एक ख़ास डब्बा बन गया
मेरा होना ज़रूरी है हर घर में
भले ही मेरे टूटने का डर सबसे अधिक है
मैं वस्तुओं के रंग को वैसा ही दिखाता हूँ जैसा वो है
बशर्ते मैं रंगों से मिल कर कभी संतरी
हरा, भूरा, लाल या स्याही ही क्यों न हो जाऊँ
मैं मर्तबान हूँ, मतदान नहीं कि लोग मेरे रंगों में पदार्पण की गिनती करेंगे
मैं डाला नहीं, रखा जाता हूँ
मैं गिना नहीं, संग्रहित किया जाता हूँ
मगर आख़िरी गिनती के बाद मेरे ऊपर एक लेबल लगाया जाता है
और लिखा जाता है उन पर; अचार, पापड़, बड़ी, बूंदी, दाल, और नमकीन
इस तरह के नामांकन से मैं झेंप जाता हूँ और लजाता हुआ डाइनिंग टेबल पर
रखा हुआ इस तरह अकबकाता हूँ
जैसे अजायबघर में पड़े होते हैं मुर्दा घड़ियाल
मैं नेता नहीं हूँ, मर्तबान हूँ मगर जनता समझती ही नहीं
महिलाएँ मुझे सबसे ज़्यादा एक्सप्लॉइट करती हैं
वो मुझे अपने हिसाब से मुझ पर पर्चा चेपती हैं
और बड़ी आसानी से मेरे शीशे से साफ़ बदन पर
लाल मिर्च, काली मिर्च, पाउडर मिर्च लिखती नहीं थकती हैं
मैं मर्तबान हूँ कोई पत्रकार या अख़बार नहीं
मैं अपनी अर्ज़ी किसे लगाऊँ?
बाबाओं को, नेताओं को, योगियों को या महकमे के किसी अधिकारी को?
मैं तो वही बना जिसका लेबल मुझ पर लगा
मैं क्या ही करता अगर किसी ने लिखा हो मेरे डब्बेनुमा बदन पर योगी, मोदी, जोगी या ढोंगी?
मैं तो मर्तबान हूँ और टूट जाऊँगा गिर कर
तभी संसद के सत्र का आख़िरी अभिभाषण प्रसारित होता है
सुना है कि मर्तबान के टूटने से सरकार गिर गई है!
मर्तबान अपने मर्तबान होने पर शासन-व्यवस्था को कोसता नहीं थक रहा है!
- रचनाकार : प्रेमा झा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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