मैं हूँ
क्योंकि मैं सोचता हूँ
या यह सोचना ही प्रमाणित करता है
मेरे होने को,
पर यह ग़लत है
सबकी नज़र में मेरा सोचना ग़लत है
यह किसी क़िस्म का 'विद्रोह' है
इसलिए मैं देखा जाता हूँ
संशय से,
पहरे होते हैं मुझ पर निगाहों के,
मुझ पर चर्चा होती है
जब मैं सामने नहीं होता
पर कुछ तो बात है
कि मुझे देखकर उनकी ज़ुबान पर ताले पड़ते हैं
अकबकाकर वे यहाँ-वहाँ देखते हैं
जैसे कोई जगह चाहिए
जहाँ वे बैठकर स्वयं को मज़बूती से
पेश कर पाएँ,
बस इतना नहीं
वे मुझे देखते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं
इतिहास बनाकर मेरा अध्ययन करते हैं
मैं इतिहास की एक उपज हूँ—कहते हैं
सामाजिक प्राणी के रूप में
मेरा विश्लेषण किया जाता है,
मेरा मन भी मेरा नहीं
एक लंबी अंतहीन प्रक्रिया में
क्रिया-प्रतिक्रिया में वह निर्मित है
—यह कहकर मुझसे मेरा मन छीना जाता है
और इस क्रम में
कोई यह नहीं देखता कि
मैं एक जीवित प्राणी हूँ
और इस 'जीवित' कहने के भी कुछ मायने हैं
कुछ अर्थ हैं
—यह सब कुछ जानकर अब यह पुख़्ता है
कि मेरा होना मात्र एक स्थिति नहीं,
वह एक संघर्ष की नींव है
एक नवीन अध्ययन की शुरुआत है
जहाँ मुझे परिभाषित करना होगा
हर शब्द को, हर विचार को
प्रत्येक रीति को, सभी परंपराओं को
पर सबसे बढ़कर उस समय को
जो मनुष्य की दृष्टि है
और जो विश्लेषण ही नहीं
निर्माण करता है उन सभी का
जिन्हें हम देखते हैं, महसूस करते हैं,
मैं जानता हूँ कि
मैं ग़लत हूँ
क्योंकि मैं सोचता हूँ
केवल इसलिए नहीं कि मैं सोचता हूँ
बल्कि इसलिए
कि जहाँ से मैं सोचता हूँ
वहाँ से न पहले को जानता हूँ
न बाद के बारे में कोई रूपरेखा रखता हूँ,
निश्चय ही यह संघर्ष
समय से है
जिसके न आदि का ज्ञान है, न अंत का
बीच मँझधार में खड़े होकर
सोचना और बोलना दोनों ही
अरण्यरोदन भर है
भले ही वह कितने ओज से बोला जाए।
- रचनाकार : शशि शेखर
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए अदिति शर्मा द्वारा चयनित
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