महाविद्यालय

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शिव कुमार गांधी

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महाविद्यालय

शिव कुमार गांधी

और अधिकशिव कुमार गांधी

    हाँ बतख़ें तो बिल्कुल भी नहीं थी वहाँ और मोर भी

    कुछ पेड़ थे शायद, रेगिस्तान देखने की आदत थी सो खिड़कियों के बाहर वे पेड़ जैसे दिखते नहीं थे

    और शाम आती थी पूरी आती थी परछाइयाँ अलग से मालूम नहीं होती थी

    पेड़ के सहारे कोई खड़ा भी नहीं होता था अधेड़ होने के बाद कोई जाए वहाँ तो वे पेड़ शायद अब कोई सहारा दे उस समय वहाँ कोई अधेड़ नहीं खड़ा होता था क्योंकि महाविद्यालय नया था

    हिंदी विभाग में कोई कवि नहीं था भौतिकी विभाग में भी नहीं सो वे सभी स्टाफ़ रूम में ही रहते थे सो पेड़ बिल्कुल ही नकारा से थे वहाँ संभवतः पेड़ों के आस-पास का पूरा जीवन भी

    कला विभाग में पढ़ने वाली एक अनीता थी जो कुछ पत्तियाँ-सी बनाती थी लेकिन उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देता था क्योंकि रसायन विभाग और दर्शन विभाग की संगीता वर्मा और शालिनी चौहान ने सारे ध्यान अपनी ओर लिए हुए थे जबकि वे जो कुर्ते पहनती थीं उन पर पत्तियाँ भी बनी होती थीं और रंग हरे और पीले नारंगी भी होते थे।

    लेकिन नए महाविद्यालय में कविता अपनी बंजर भूमि में थोड़ी देर से पल्लवित हुई सो सभी फ़िलहाल कविताविहीन तरीक़े से कविता भी पढ़ रहे थे और संगीता और शालिनी के कुर्ते भी, और संगीता शालिनी आभा वीणा छाया दूसरों की आँखों को

    अब हिंदी विभाग में तो वे दोनों ही नहीं पढ़ती थीं सो हम दिन भर भक्तिकाल और रीतिकाल अजीबो-अजीब तरीक़ों से पढ़ते थे और शाम होते होते एक भयानक ऊब लेकर निकलते थे बिना बात आसमान में बतख़ाें और मोरों को उड़ाते हुए

    वहाँ अध्यापक-अध्यापिकाएँ एक ही तरह के थे लड़कियाँ कई तरह की थीं लड़के दो तरह के हुआ करते थे एक वे जिनको अपनी नियति के बारे में कोई शक- शुब्ह नहीं था दूसरे वे थे जो अपनी नियति से अनभिज्ञ थे हाँ नियति ज़रूर तय थी और वह तो हिंदी विभागाध्यक्ष की आँखों में भी दिखती जो कि कला विभाग की एक अध्यापिका को अपने स्कूटर पर बिठाकर लाया करते थे

    लड़कियाँ नियति के बारें में क्या सोचती थी यह जानने के हमारे पास अवसर नहीं थे महाविद्यालय की जिस कैंटीन में हम कभी-कभार चाय पीते थे उस पर बैठा लड़का हमें बोलता था तुम सब चूतिए हो, फर्स्ट इयर का प्यारा मोहन एक दिन पी.टी.आई. को बुलाकर लाया कि ये कैंटीनवाला हमें गाली देता है उस कैंटीन वाले लड़के ने पीटीआई को बोला कि तुम चूतिया सरदार हो और वहाँ से भाग गया। महाविद्यालय का ये पाठ उस समय प्यारा मोहन को समझ नहीं आया था क्योंकि संगीता शालिनी उसे एक अच्छा बच्चा मानती थी जिन्हें ये पाठ अभी तक समझ नहीं आया वे सब पी.टी.आई. बन गए हैं

    ग़ुंडागर्दी की बस इतनी-सी हवा थी कि दीपचंद कभी-कभार किसी को डाँट देता था सुरेश ने शहर के हिंदी दैनिक में संपादक को पत्र लिखा कि महाविद्यालय में बहुत बदमाशी बढ़ गई है दीपचंद ने सुरेश को एक चाबी का छल्ला गिफ़्ट किया जिसमें कि प्लास्टिक की सुलगती सिगरेट बनी हुई थी

    उमाशंकर निशांत जब यह कहते हुए कक्षा में घुसते थे कि प्रात:स्मरणीय तुलसी ने यह कहा है तो हम सोचते थे कि आज प्रात: हमने किसका स्मरण किया है और शर्मिंदगी होती थी उमाशंकर निशांत की ओजस्वी वाणी भाषा हमें तुलसी की बातें मनवा कर ही छोड़ती, प्रश्न की कोई गुंजाइश आज़माइश थी ही नहीं शालिनी संगीता काश तुम दोनो भी तुलसी पढ़ती कमबख़्त उमाशंकर निशांत कभी तुलसी के आगे से बढ़े ही नहीं निरुपमा दत्त तुम हमें इस महाविद्यालय के बाहर ही मिलने वाली थी

    घटनाएँ भी देखिए कैसे महीनों चलती थी सुनने-सुनाने के लिए कि इतिहास के शिक्षक एक शाम मेडिकल स्टोर से कंडोम ख़रीद रहे थे और उनके स्कूटर के पास खड़ी महिला निश्चित रूप से उनकी पत्नी ही थी लेकिन जिस लड़के ने उन्हें देखा सुना था उसके अंदाज़-ए-बयाँ ने इस घटना को महाविद्यालय में चर्चित बना दिया उस सुभाष नाम के लड़के ने पूरी कोशिश की थी कि लड़कियाँ भी इस क़िस्से को सुनें और जानें कि कंडोम क्या होता है तो इस बारे में और चर्चाएँ आगे चलें तो क़िस्सों का अकाल कुछ ऐसा ही था शालिनी संगीता कोई बड़ा क़िस्सा गढ़ सकीं ही अनीता की वे पत्तियाँ जिन्हें उसने थर्ड इयर में कॉलेज के हॉल में लगाई अपनी चित्र प्रर्दशनी में प्रदर्शित किया था

    सुभाष पूरे साल उसी क़िस्से को सुनाता रहा घनश्याम पासबुक पढ़ता-पढ़ता वही सब सुनता रहा छाया राजवंशी सुमन शेखावत वीणा त्यागी ऐसे ही हिंदी की कक्षाओं के बाद समाजशास्त्र की कक्षाओं में पढ़-पढ़ कर घर जाती रहीं अपने नए दुपट्टे बदलती रहीं उमेश ने सिर्फ़ अपनी साइकिल बदली सुखविंदर ने एन.सी.सी. में ख़ूब मार खाई और पढ़ाई बीच में छोड़ लाइट हाउस की दुकान में काम किया बहुत बाद में जब एक प्रिंसिपल की लड़की की शादी में बारात वहाँ महाविद्यालय में ठहरी थी और फेरे भी वहीं हुए थे उस सारे आयोजन में लाइटिंग सुखविंदर के ही ज़िम्मे थी जिसका बिल अभी भी महाविद्यालय पर बक़ाया है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शिव कुमार गांधी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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