मछली पुराण

machhli puran

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मछली पुराण

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    एक

    जिस मछली से हुआ था प्रथम साक्षात्कार बासु दा का 
    वह मछली थी बैला, जो कहलाती थी बलुआ भी 
    कि उन्हें पसंद रहा स्वच्छ जल का बालूमय जनपद हमेशा 
    छुपा न था किसी से भी बारिश के संग बलुआ का अंतरंग संबंध
    कि हर बार वही बनी वर्षा-ऋतु की प्रथम जल-शस्य।

    पड़ी रहती मरी मछली समान वह उजान की ओर रख मुख 
    पता था उन्हें कि करेंगी सरंजाम उनकी भूख का जलमाता 
    बड़ा-सा मुँह खोलती अपनी ओर आता देख निवाला 
    आलस्य इन मछलियों का बासु दा ने क़रीब से था जाना 
    फिर मुश्किल न था ढूँढ़ न स्वच्छ जल में इनका ठिकाना।

    बंसी में लगा कभी छोटी झींगा तो कभी मिष्टान्न का टुकड़ा 
    डालते बासु दा जल में, मछलियाँ लपकती उस ओर तल में 
    मासूम मछलियाँ नहीं जानती कोई लगा बैठा होगा घात 
    बाहर निकलते ही बँसी के, मछलियाँ रखी जाती बटुली में 
    फिर अंतिम श्वास तक लड़ती, करती रहती तुमुल उत्पात। 

    बदला मौसम, बीते साल, कभी डाली बंसी, कभी डाला जाल 
    हर बार तृप्त हुई बासु दा की भूख, मिला उनकी जिह्वा को स्वाद 
    बहुत सालों बाद की है बात, 
    जब वृद्ध हाथ नहीं पकड़ पाते थे बैला 
    मछली नहीं, तड़प रहे थे बासु दा बँसी में फँसी मछली की तरह 
    मृत्यु के मछुआरे ने इस संसार नामक भवसागर में था बँसी डाला।

    दो

    गड्ढे बनाती हैं किनारों पर नदी की लहरें जहाँ-जहाँ 
    शुष्क मौसम में, लेती हैं आश्रय वहाँ-वहाँ 
    आत्मरक्षा के लिए परिपक्व वय की बलुआ मछलियाँ।
    उघड़ी ही रह जाती है उनकी पीठ बिना ढक्कन के 
    रेत की प्राकृतिक बटुली में, उड़ जाता है रूपहला रंग पीठ का 
    सूरज की किरणों में तप-तप कर, पर बात नहीं रूकती यहाँ 
    इन्हीं गड्ढों में अक्सर हो जाती हैं ये कंकालसार।

    दो हज़ार सत्रह के दिसंबर महीने में आई थी ख़बर 
    आशा सहनी नामक उस स्त्री की जो हो गई थी कंकालसार 
    करते हुए बेटे की प्रतीक्षा, करोड़ों के अपने मुंबई के घर में 
    बासु दा अगर ज़िंदा रहते तो बताते लेकर सजल नेत्र 
    कई बार आप सिर्फ़ इसीलिए करते हैं वरण मृत्यु का 
    कि आप नहीं छोड़ना चाहते घर का अपना सुविधा-क्षेत्र।

    तीन

    श्रावण के आगमन पर वेगवती हो उठी नदी में 
    गई थी करने गुसल अपनी बांधवियों संग 
    तितास पार की पंद्रह साला लड़की लैला 
    नहाना तो बहाना था, लाना था उसे बैला 

    पहले भी किया था पार नदी को कई बार 
    नया शय न था बलुआ मछली का शिकार 
    ढूँढ़ती गड्ढे तट पर गले भर पानी में जाकर 
    पाँव की उँगलियों से रेत पर टटोल-टटोलकर 

    गड्ढे के मुहाने को ज्यूँ ढूँढ़ती उँगलियाँ 
    भरकर श्वास फेफड़ों में लैला डुबकी मारती 
    घुसाती हाथ बलुआ मछली के गड्ढे में 
    मछलियाँ भय से रेत के और भीतर चली जाती 

    पहुँचकर शिकार के इतने क़रीब 
    छोड़ता शिकार कौन बदनसीब 
    रेत के जितने भी भीतर जाती बैला 
    उन्हें पकड़कर ही दम लेती थी लैला 

    एक डुबकी में अगर शिकार न लगे हाथ 
    तो डुबकी लगाती लैला कई-कई बार 
    शिकार का नशा होता ही है ऐसा कि वह 
    भूल जाती साँसों के ख़त्म होने की बात 

    उस रोज़ कुछ अधिक तेज़ थी नदी की धार 
    अभी रेत के भीतर ही फँसी थी लैला की हाथ 
    तेज़ धार ने किया था शरीर पर कई वार 
    पलट गया उसका शरीर और टूट गई श्वास 

    गाँव भर ने मनाया लैला के जाने का सोग
    और निकल पड़े पकड़ने बैला अगले ही रोज़ 
    धतूरे से कम न होता है नशा मत्स्य-शिकार का 
    फिर यहाँ थी भूख, मजबूरी और प्रतिशोध 

    चार  

    बिला शौक़ के मनुष्य कहाँ बचता है ज़िंदा
    इसी प्रवृत्ति से तो वह करता है आनंद का उपभोग 
    कौन बताए कि कितने क़िस्म-क़िस्म के होते हैं ये शौक़
    पूरा करने को अपना शौक़ कुछ भी कर जाते कुछ लोग
    मानो शौक़ नहीं हुआ पूरा, तो वह ज़िंदा ही नहीं बचेगा 
    तब समझ जाना चाहिए कि वह शौक़ नहीं रहा 
    अब केवल शौक़, बन चुका है वह उसका नशा 
    मनुष्य की वे तमाम प्रवृत्तियाँ जिनमें शौक़ बन जाता है नशा 
    उनमें पहली है मछली पकड़ने की प्रवृत्ति 

    रूपक बाबू को भी था लगा ऐसा ही एक चस्का 
    जो न जाने कब तब्दील हो गया शौक़ में 
    चाँद मियाँ के साथ जाते हैं मछली पकड़ने 
    सेमुअल के पोखर में जो है गाँव के दक्षिण में 
    जो है शौक़ रूपक बाबू का, नशा है चाँद मियाँ के लिए  
    और है ज़रिया अतिरिक्त आय का सेमुअल के लिए
    पचास रुपए से एक कम न लेती बीवी ऑगस्टीना  
    साथ में मछली भी मिल जाए तो क्या ही कहना 

    गाँववालों के लिए जो हैं हिंदू, मुसलमान और इसाई 
    पसंद करते हैं पहचाने जाना वे ख़ुद को बतौर 'मत्स्य शिकारी' 
    पृथ्वी के जल वाले भू-भाग की लगभग हर जनजाति के बीच 
    पाए जाते हैं ये मत्स्य-शिकारी, जिनकी नहीं होती कोई जाति 
    नहीं होता है कोई गोत्र, कोई धर्म नहीं होता है, 
    कोई लिंग नहीं, अमीर और ग़रीब का भी कोई भेद नहीं होता

    मत्स्य-शिकार का नशा बनाए रखता है उन्हें 
    ख़ालिस आदिम इंसान!

    पाँच

    काक चेष्टा, बको ध्यानँ का बीज मंत्र 
    बैठता है सटीक विद्यार्थियों से कहीं ज़्यादा 
    मत्स्य शिकारियों के लिए
    बताते हैं ऐसा रूपक बाबु को चाँद मियाँ
    चाहिए किसी तपस्वी का धैर्य एक मत्स्य शिकारी में होना 
    कि मछलियाँ कहलाती हैं जल का सोना 

    कई बार ऐसा हुआ कि मछली पकड़ने बैठे रूपक बाबु 
    पर हाथ न आई एक भी मछली 
    फिर हुआ ऐसा भी
    कि अलसुबह ही हाथ कतला आ गई
    और पूरा दिन बिन माछ के यूँ ही हुआ जाया 
    जबकि कई किलो पकड़े दिन भर में चाँद मियाँ    

    धूप हो या बारिश, आंधी हो या तूफ़ान 
    बैठे रहे रूपक बाबु अपलक बँसी की ओर निहार 
    बारिश में भीगे, आँधी में सूखे और फिर भीगे बारिश में  
    पर हिले नहीं रूपक बाबु तनिक भी अपने आसन से 

    क्षुधा के देवता हों या ग़रीबी के 
    इन्हें साधने के लिए करनी ही पड़ती है तपस्या 
    आप अमीर हैं तो ख़रीद सकते हैं देवताओं को!

    छह 

    रहती हैं कतला मछलियाँ जोड़ियों में 
    विचरती हैं जल के समृद्ध संसार में साथ-साथ 
    जब उठ आती है एक कतला बँसी में 
    अगली बार बँसी डालते ही जल में 
    पकड़ी जा सकती है उसकी सहचर भी  
    वह बँसी हो सकती है आपकी या 
    किसी पड़ोसी मत्स्य शिकारी की 
    चाहिए होता है यथेष्ट अनुभव 
    एक कतला को बँसी में फँसाकर 
    जल से बाहर निकाल पाने के लिए 

    भरपूर मनोरंजन है मत्स्य शिकार 
    जिसके दीवाने होते हैं हज़ारों हज़ार 
    मानों वे बैठे हों कोलोसियम में  
    बहु वर्ष पुराने रोमन साम्राज्य के 
    और देख रहें हों ख़ूनी खेल शिकार का 
    होता है मुश्किल यह तय कर पाना 
    कि कौन होता है अधिक उत्तेजित 
    शिकारी या मनोरंजन पसंद दर्शक 

    दिखता है आनंद चेहरे पर मत्स्य शिकारियों के 
    तो उल्लास मनोरंजन से तृप्त दर्शकों के मुख पर 
    बराबर ईर्ष्या भी दिख ही जाती है मुखमंडल पर 
    उन शिकारियों के जो नहीं पकड़ सके मनपसंद मछली 
    नहीं दिखती चिंता किसी के भी चेहरे पर 
    एक जोड़े प्रेममय माछ के बिछड़ जाने की
    जिन्होंने नहीं किया कोई अनिष्ट मनुष्यों का कभी 
    थल पर नहीं जल पर ही किया वास आजीवन!

    किसने कहा प्रकृति के घर होता है न्याय बराबर!

    सात

    इक्कीसवीं सदी के इस महादेश में 
    दिखता है हर ओर ईंट और कंक्रीट 
    सूखती जा रही हैं नदियाँ और पाट दिए जा रहे हैं तालाब 
    ज़्यादातर लोगों की सुधि में
    पोखर नहीं, पानी नहीं, वर्षा नहीं, हरीतिमा नहीं 
    खेत नहीं, धान नहीं, झील नहीं, मछली नहीं 
    वह मातम भी तो नहीं जो बहा करती थी हवाओं के संग 
    शस्य श्यामला धरा के उपर 
    मत्स्य शिकार का आनंद भी नहीं!

    यह विनाश नहीं आया स्वतः ही
    किया गया इसे आमंत्रित क़ायदे से 
    जो आया विकास की वेशभूषा में 
    फिर पसरता ही गया!

    रुष्ट हो रही है जलमाता 
    मत्स्य देवी देने ही वाली हैं 
    पृथ्वीवासियों को श्राप 
    कब करेंगे प्रतिवाद हम और आप!

     
    स्रोत :
    • रचनाकार : सुलोचना
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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