ले लो मेरी सारी सफलता

le lo meri sari saphalta

प्रतिभा शतपथी

प्रतिभा शतपथी

ले लो मेरी सारी सफलता

प्रतिभा शतपथी

और अधिकप्रतिभा शतपथी

    मैं गभीर कुप हूँ

    मेरे स्थिर निस्तब्ध जल पर तुम

    चिंदी-भर चाँदनी हो

    किस स्नेह से उतर आते हो तुम पता नहीं

    छिपकर रहती हूँ

    सो क्या आते तलाशने?

    सच, समझते कभी क्या

    कूप की चुप्पी और अकेलेपन को!

    देखो, एक ही पल में

    मुझमें बनते जा रहे हैं महाअंतरिक्ष

    आकाश, ग्रह, नक्षत्र, छायापथ

    स्थिर हो बिम्बित हो रहा है

    बादलों की आड़ में अनंतता

    चमक रही है

    जीर्ण कुएँ की मुँढेरी, सिवार

    दरारों के बीच उगे दूब...

    चमक रही है

    मेंढक की-सी लाचार संकीर्णता

    मुझमें, मेरे अंदर

    देखो,

    इसी मुहूर्त में ही तो

    एकत्रित होता जा रहा है समग्र जीवन

    निविड़ जितने स्वप्न

    अभीप्सा का निःसीम दिगंत मेरा

    बनता जा रहा है बिंदु एक

    अतल को छूने वाली मुलायम चाँदनी में

    नगण्य छाती में मेरी

    और भी गहराई में

    अब तक हास्यास्पद जीवन के

    अर्थों की तलाश

    अधिकाधिक धन्य होकर

    हो रही है बिम्बित तुम्हारे स्पर्श से!

    लो, मैं सौंपती हूँ

    सारी सफलताएँ मेरी

    इसी पल।

    स्रोत :
    • पुस्तक : समय नहीं है (पृष्ठ 30)
    • रचनाकार : प्रतिभा शतपथी
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन

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