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लौह बंधन

lauh bandhan

वनजारा बेदी

अन्य

अन्य

वनजारा बेदी

लौह बंधन

वनजारा बेदी

और अधिकवनजारा बेदी

    कल भी एक लौहबंधन में

    पत्थर बने हुए जकड़े थे

    आज भी कँटीली झाड़ियों ने

    हमें बंदी बनाया है

    अपने ही कुएँ के पानी को

    पीने पर प्रतिबंध लगा है

    और बारिश की प्रतीक्षा में

    आकाश पर आस लगाए बैठे

    माता की देह

    पहले ही खरोंचकर

    एक ऐसा ढाँचा बना दिया है

    जिसके क़दमों में तो गति

    हाथों में त्वरा

    भीतर ख़ून बने तो अंग सहज हों

    मित्रो!

    ज़्यादातर जिस्मों में तो आज

    सुलगता है विष

    जो हर शब्द में ऊँघता जाग रहा

    सिंह घिर भी जाए

    तो भी गीदड़ नहीं बनता

    अख़बारों का हर पन्ना है व्यंग्य

    ज्यों काला टीका मेरी माँ के माथे पर

    हर सुबह अमावस-सा लग जाता

    नित्य नई अमावस पाकर

    हमने पूर्णिमा की ही आशा त्याग दी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 106)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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