इक्कीसवीं सदी की सुबह झाड़ू देती स्त्री
रोचक तथ्य
इस कविता के लिए कवि को भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त हुआ।
इस दृश्य का यह शीर्षक क्यों?
क्या इसमें झाड़ू और स्त्री को
नहीं होना चाहिए
या होना भी था तो नहीं एक साथ
या फिर
झाड़ू हो भी
तो झाड़ू की तरह नहीं
इस सदी में
जैसे गंदगी है
पर गंदगी की तरह नहीं
बहरहाल, इस बहस से बेख़बर
सुबह-सुबह उठकर
झाड़ू देने में जुट गई है स्त्री
क्या उसे ख़याल है कि यह
इक्कीसवीं सदी की सुबह है
और जिसे वह घर की धूल समझकर
बुहार रही उसमें दरअसल है
एक पूरी शताब्दी
या समूची सहस्राब्दी की धूल
ज़मीन के ऊपर
ख़ाली छत ही नहीं कई तहें हैं
वह सबको साफ़ कर रही बारी-बारी
किताबें बहुत कम हैं
पर धूल उन पर बहुत
कई मशीनें हैं कई सामान
अभी टी.वी. के पर्दे पर झाड़ू फेरा
और देखा कि दृश्य साफ़ आ रहा पहले से
इस बीच एक लड़का आता शिकायत करने
कि पड़ गया है कुछ उसकी आँखों में
हेर देती उसकी भी किरकिरी
यह काव्यात्मक न्याय ही है
कि वही फूलझाड़ू फिर रहा
ताक पर बैठे देवताओं पर
जिससे साफ़ हुई थी घर के अधम कोनों की झाड़न
मकड़ियाँ भागती हुई अपने जालों से
ले जा रहीं उसे दूसरी तरफ़
हाथ ऊपर कर उछल-उछल कर भेदती सारे व्यूह
वह उचकती तो कुछ और ऊपर खिसक जाता आसमान
पैरों की धमक से धरती सरकती नीचे
और ऊँचा उठना है उसे ये जंजाल समेटने के लिए
घर बुहार कर भी चैन नहीं
कि अब दिख रहे हैं ग्रह-नक्षत्रों के बीच के झोल
एक तिपाई के ऊपर दूसरी रखकर
वह खड़ी पंजों के बल उचक कर
मुझे लगता अब कुछ होने वाला है
कोई उलटफेर
इस पूरी व्यवस्था में कुछ भी संतुलित नहीं
पंजों पर खड़ी उस स्त्री के अतिरिक्त
कुछ भी यही नहीं रहेगा
अभी थोड़ी देर में
बदल जाएगा सब...
सरक रही धूल खाँसता हुआ
बाहर आ जाता मैं दृश्य से।
- पुस्तक : उर्वर प्रदेश (पृष्ठ 288)
- संपादक : अन्विता अब्बी
- रचनाकार : प्रेमरंजन अनिमेष
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2010
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.