कुंति और कर्ण

kunti aur karn

मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त

कुंति और कर्ण

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    जब दुर्योधन किए बिना संग्राम सरासर,

    देने लगा भूमि सुई की नोक बराबर।

    जब एक भी बात संधि की उसने मानी,

    तब विग्रह को विविश हुए पांडव विज्ञानी॥

    सुन कर यह सब हाल युद्ध होना निश्चित कर,

    कुंति कर्ण-समीप गई गंगा के तट पर।

    था उसका उद्देश कर्ण को समझाने का,

    तथा मना कर आत्म-पक्ष में कर लाने का॥

    वहाँ कर्ण आकंठ-मग्न सुरसरी-नीर में,

    कर युग ऊँचे किए लग्न था तप गभीर में।

    जप से हुआ निवृत्त वह बल-गर्वित जौलों,

    राह देखती रही खड़ी उसकी यह तौलों॥

    किए चित्त एकाग्र सूर्य में दृष्टि लगाए,

    अस्फुट स्वर से वेद-मंत्र पढ़ता मन भाए।

    सलिल मग्न आकंठ सुहाता था वह ऐसे,

    अलि-कुल-कलकल-कलित कमल फूला हो जैसे॥

    गंगा-गर्भ-प्रविष्ट सूर्य-सुत शोभाशाली,

    दिखलाता था छटा एक वह नई निराली।

    सूर्योन्मुख था दृश्य अचल यों मुख-मंडल का—

    जल में ज्यों प्रतिबिंब सूर्य का ही हो झलका॥

    करके पूरा ध्यान देख कुंती को आगे,

    बोला वह यों वचन विनय पूर्वक अनुरागे।

    अधिरथ-सुत यह कर्ण तुम्हें करता प्रणाम है;

    हो आर्ये! आदेश, कौन मम योग्य काम है?

    होकर तब आशीष उसे समुचित हितकारी,

    बोली कुंती गिरा प्रकट उससे यों प्यारी।

    “बढ़े तुम्हारी कीर्ति वत्स! नित भूमंडल में;

    आखंडल सम कहें सकल जन तुम को बल में॥

    अधिरथ-सुत की बात वदन से तुम बखानो

    शुद्ध सूर्य-सुत श्रेष्ठ सदा अपने को जानो।

    राधा-सुत तुम नहीं, पुत्र मेरे हो प्यारे;

    मानों मेरे वचन सत्य ये निश्चय सारे॥

    आमंत्रित कर सूर्य देव को मैंने मन में,

    मंत्र शक्ति से तुम्हें जना था पिता-भवन में।

    आत्म-विषय में विज्ञ होने से तुम संप्रति,

    रखते हो रिपु-रूप कौरवों में अनुचित रति॥

    अहो दैव! उत्पन्न किया था जिसको मैंने,

    सुर-संभव नर-जन्म दिया था जिसको मैंने।

    वही आज तुम वैर पांडवों से रखते हो,

    कर्तव्याकर्तव्य नहीं कुछ भी लखते हो॥

    होता तुम से सदा पांडवों का अनहित है,

    सोचो तो हे वत्स! तुम्हें क्या यही उचित है।

    सुत-सेवा-उपहार दिया जाता क्या यों ही?

    माता-ऋण-प्रतिकार किया जाता क्या यों ही॥

    जननी का संतोष पूर्ण करना मनमाना,

    धर्मयज्ञों ने यही धर्म का मर्म बखाना।

    सो हे धार्मिक-धीर! तुम्हारा है सब जाना,

    फिर क्या समुचित नहीं पांडवों को अपनाना॥

    सदाचरण-रत सदा युद्धिष्ठिर अनुज तुम्हारे,

    भीम, नकुल, सहदेव, पार्थ अनुगामी सारे।

    हो तुम मम सुत प्रथम पांडवों के प्रिय भ्राता,

    सो सब सोच विचार बनो अब उनके त्राता॥

    पार्थ-भुजों से हुई उपार्जित सब सुखकारी,

    दुर्योधन से हरी गई जो छल से सारी।

    धर्मराज की वही राजलक्ष्मी अति प्यारी,

    भोगो अरि संहार स्वयं तुम हे बलधारी॥

    तुम लोगों को देख भेंटते बंधु-भाव से,

    प्रेम और आनंद सहित अत्यंत चाव से।

    पामर कौरव जलें, स्वजन सारे सुख पावें,

    मन चीते सब काम तभी मेरे हो जावें॥

    राम-कृष्ण का नाम लिया जाता है जैसे,

    सूर्य-चंद्र को याद किया जाता है जैसे।

    वैसे ही सब लोग कहें कर्णार्जुन सुख से,

    करो वीर तुम वही छुड़ा कर मुझको दु:ख से॥

    कर्णार्जुन-सम्मिलन जगत को आज बता दो,

    बंधु-बंधु-संबंध सभी को प्रकट जता दो।

    प्रेम-सिंधु में स्वजन-वर्ग को शीघ्र नहा दो,

    शत्रु-जनों का गर्व खर्व कर सर्व बहा दो॥

    राम-भरत की भेंट हुई थी पहले जैसे,

    कर्ण-युधिष्ठिर-मिलन आज देखें सब तैसे।

    आई हूँ मैं इसीलिए इस समय यहाँ पर,

    करो पुत्र स्वीकार वचन मेरे ये हितकर॥”

    मर्म-स्पर्शी वचन श्रवण कर भी कुंती के,

    बदले नहीं विचार कर्ण के निश्चल जी के

    प्रत्युत्तर फिर लगा उसे देने वह ऐसे—

    मुरज मधुर गंभीर घोष करता है जैसे॥

    “हे नर-वीरप्रसू! वचन ये सत्य तुम्हारे,

    जन्म-कथा निज जान अंग पुलकित मम सारे।

    सूत वंश में हुए किंतु संस्कार हमारे,

    अधिरथ-राधा विदित हमारे पलक प्यारे॥

    दुर्योधन ने सदा हमारा मान किया है,

    प्रेमसहित धन-धान्य पूर्ण बहु राज्य दिया है।

    किए सतत् उपकार जिन्होंने ऐसे-ऐसे

    त्यागें उनका संग कहो फिर हम अब कैसे॥

    टाले नहीं कदापि जिन्होंने वचन हमारे,

    बंधु-भाव जो रहे सदा ही हम पर धारे।

    उनका ऐसे समय साथ कैसे हम छोड़ें?

    तोड़ पूर्व-संबंध वैर कैसे हम जोड़ें?

    किए भरोसा सदा हमारा ही निज मन में,

    दुर्योधन ने सकल कार्य हैं किए भुवन में।

    फिर भी जो साहाय्य करें उनका कहीं हम,

    यही कहेंगे विज्ञ मही में मनुज नहीं हम॥

    इस कारण हे जननि! रहेंगे जीवित जौलौं,

    होने देंगे अहित दुर्योधन का तौलौं।

    लेंगे हम आमरण पक्ष उस बलधारी का,

    करना क्या अपकार चाहिए उपकारी का?

    कौरवपति की ओर धर्म को हम पालेंगे,

    किंतु तुम्हारे भी वचन माँ, हम टालेंगे।

    एक पार्थ को छोड़, निरत जिससे हैं पण में,

    मारेंगे हम नहीं किसी पांडव को रण में॥

    अर्जुन ही या हमीं एक जन लड़ स्वपक्ष में,

    पावेंगे यदि विमल वीरगति को समक्ष में।

    तो भी सुत हे जननि! रहेंगे पाँच तुम्हारे,

    होंगे मिथ्या नहीं कभी ये वचन हमारे॥”

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 121)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994

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