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क्षणिकाएँ

kshanikayen

मुकेश कुमार सिन्हा

अन्य

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और अधिकमुकेश कुमार सिन्हा

    एक

    ग़लती से आई थी

    एक मैना मेरे घर में,

    दरवाज़े से अंदर

    उस दिन छत नीला लगा,

    उस दिन जाना कमरे का आसमान हो जाना

    चिड़िया तुम बराबर आया करना!

    दो

    मेरे लिए

    स्टेशन का प्लेटफ़ॉर्म

    या तो घर से जुड़ा होता है

    या फिर मेरे आगमन पर ख़ुश होकर

    स्वागत करता है।

    मैंने हर समय

    स्टेशन में घर का अक्स देखा

    स्टेशन सिर्फ़ गृह जिले में हुआ करते हैं।

    ...है न!

    तीन

    एक स्नेहसिक्त बोसा

    पिघला देती है

    दर्द से जमे कोलेस्ट्रॉल को

    होंठों का स्पर्श

    रूधिर के बहाव को

    करता है तेज़

    तभी तो

    स्फिग्मोमैनोमीटर की सिस्टोलिक रीडिंग

    प्रेमियों की पहचान होती है

    ...है न!

    चार

    लेवल सिर्फ़

    ऑक्सीजन का गिरता

    तो संभल जाता,

    संभाल लिया जाता

    दर्द इस बात का है कि

    मानवीयता और संवेदनाओं का

    लेवल भी गिर गया।

    समय लगेगा, संभलने में!

    पाँच

    गणितीय पाई जैसी

    हो गई है स्थिति मेरी

    दिखता है बराबर-सी स्थिति

    बराबर सा ओहदा

    पर किसको पता

    22 और 7 के अनुपात में

    दबाव झेलते हैं हम।

    छह

    चुंबन है

    हाई मॉड्युलेशन की

    झंकृत करती सप्तरंगी तरंग

    जो बस शून्य वेवलेंथ पर

    तय कर के रास्ता

    बता देती है कि

    प्रेम की अभिव्यक्ति का है

    ये शाश्वत माध्यम!

    सात

    विंडस्क्रीन पर

    वाइपर की सरसराहट

    जैसे चेहरे से

    हटाया हो दुपट्टा

    भीगते प्राकृतिक परिदृश्य ने

    टपकते बूँदों के साथ

    पर, काँच के पार

    आँखे मिची

    दर्द को जज़्ब करने की कोशिश

    असफल ही रही

    जबकि सिर्फ़ कुछ कश ही तो थे

    फिर भी, धुएँ के पार

    चाँद नज़र आया

    तुम्हारे चमकते चेहरे के साथ!

    आठ

    मेरे हथेली में

    है कटी रेखाएँ

    जीवन, भाग्य और प्रेम की

    पर है

    एक ख़ुशियों का द्वीप

    ठीक बाएँ कोने पर!

    उम्मीदें जवां हैं!

    नौ

    मेरे ह्रदय तंतु से

    जुड़े ढेरों रक्‍त वाहिनी, नलिकाओं,

    धमनियों और शिराओं में

    जगह जगह खिलखिला रहे तुम

    कलियों फूलों की तरह अवरोध बनकर

    चाहता हूँ करा ही लूँ एंजियोप्लास्टी

    पर चाहतें जीवन से ज़्यादा ज़रूरी है न!

    तो, बस सपने मे ही सही

    खिलखिलाती रहना!

    दस

    विंड चाइम की घंटियों सी

    किचन से आती

    तुम्हारी खनकती आवाज़ का जादू

    साथ ही, तुम्हारा बनाया

    ज़्यादा दूध और

    कम चाय पत्ती वाली

    चाय का बेवजह का सुरूर!

    सर चढ़कर जब बोलता है!

    तो बंद आँखों में तैरने लगते हैं

    कविताओं के खिलखिलाते शब्द बे

    शक लिख पाऊँ कविता!

    कल कॉफ़ी बनाना!

    स्रोत :
    • रचनाकार : मुकेश कुमार सिन्हा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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