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क्रोध

krodh

ऋत्विक्

ऋत्विक्

क्रोध

ऋत्विक्

और अधिकऋत्विक्


    क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः
    स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति

    उसे रोका जा सकता था।
    किसे रोका जा सकता था?
    ‘क्रोध को’।

    वह आता है 
    तूफ़ान की तरह और 
    धकेल देता है मुझे 
    अपने प्रियजनों से दूर,
    किसी अनजान, अनाम, अँधेरे कोने में। 

    वह भभकता है 
    आग की तरह 
    और जलाता है 
    सब स्मृतियों के साथ मुझे भी।

    वह पथ निर्माण करता है नरक का...
    जिस पर चलकर मैं 
    स्वयं ही गिर जाता हूँ
    अविवेक की खाई में।

    जानता हूँ
    ‘क्रोधाद्भवति सम्मोहः’
    की बात...
    किंतु वह तो 
    रक्तबीज की तरह 
    उपजता है फिर-फिर। 

    विध्वंस का उपासक वह
    उथल-पुथल मचा देता है
    हृदय-नगरी में।

    इसीलिए कहते है जगत्पति 
    ‘उसे रोका जा सकता है’
    और बचाया जा सकता है
    स्वयं को
    ‘बुद्धिनाश’ से।

    स्रोत :
    • रचनाकार : ऋत्विक्
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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