कीड़ों के बारे में
बालटियों की आवाज़ और साबुन का
स्वाद पहचानते हैं
अच्छी तरह मालूम है उन्हें
आटे की गोलियों में ज़हर के बारे में
खेत में एकटक घूरते हैं पॉलीथिन की थैलियाँ
और खोदने लगते हैं और गहरा
पत्ते कुतरते हुए टपक जाते हैं
छींटों से बचकर
नाली की दीवार से चिपक कर
बहने देते हैं फ़िनायल का घोल
तरह-तरह के धुएँ में साँस रोकने की कला
पहले ही सीख चुके हैं
अब बेहोशी का अभिनय भी
कमाल का करते हैं
मैंने कितनी बार देखा है
रोशनी में भागती छिपती आबादी
छत पर जाले
दीवारों पर बिल
दीमक की बाँबियाँ
ट्यूबलाइट के ऊपर छिपकली
अपनी जैव घड़ियाँ इन्होंने मिला रखी है
हमारी दिनचर्या से
ठीक आधी रात को घर और शहर
उनके हवाले होता है
मनुष्य जब-जब जहाँ-जहाँ
आराम करते हैं
तब-तब वहाँ-वहाँ ये काम करते हैं
इस तरह शताब्दियों से
हम एक साथ घर-बार कर रहे हैं
छोटी-मोटी दुश्मनियाँ पाल कर
इन्हें जल्दी नहीं है
ये जानते हैं
यह पृथ्वी पहले भी उनकी थी
यह पृथ्वी उनकी है बाद में भी
- पुस्तक : राख का क़िला (पृष्ठ 47)
- रचनाकार : अजंता देव
- प्रकाशन : वाग्देवी प्रकाशन
- संस्करण : 2002
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.