गर प्रेम का बोझ दुगना न होता साथी
मेरी आँखों में तुम्हारे सूरत-ओ-जमाल के सिवा
किसी भूख से दम तोड़ते बच्चे की
भात की थाली भी होती
और मैं ज़ेहन में उतार पाता एक दुःख
जो कि जबरन उतारे गए कपड़ों में
चीख़ बनकर गुज़रता है।
गर प्रेम का बोझ दुगना न होता साथी
मैं बन सकता था, काफ़्का का रक़ीब,
एक कीड़ा अपनी कहानियों में
जो मैं अस्ल में हो चुका हूँ
और डूब सकता था
जीवन की अंतरतम पहेलियों में
जुटा के हौसला किसी अज्ञेय का।
गर प्रेम का बोझ दुगना न होता
साथी
तो मैं दाढ़ी काढ़े उस शख़्स की तरह निकल सकता था
एक क़लम से दुनिया बदलने का ख़्वाब लेकर
और बना सकता था
नाख़ूनों को छील सकने वाली चमड़ियाँ
पहचान पाता
चूल्हे में झुलसती देह की गंध,
और लगा सकता हिसाब झुलसती देह की गिनतियों का।
गर प्रेम का बोझ दुगना न होता साथी
मैं सँवार सकता अपनी कल्पना में ही
एक उनतालीस की औरत के केश,
जो सिर पर उठाए हुए चलती है
गुह से भरी हुई टोकरी
लेता जायज़ा
कि फ़सलें कौन-सी ऋतु में घूमकर
फंदे का आकार लेती हैं
और एक जेब की मोटाई
दूर, सैकड़ों गर्दनों की लंबाई कैसे बदल देती है।
गर प्रेम का बोझ दुगना न होता साथी
तो मैं जानता कि ग़मों का क्या है?
वो तुम्हारे होने, न होने से बेपरवाह हैं,
ज़माने भर की गलियों में भरपूर,
अख़बार की क़तरन से होकर
सीरिया या इराक़ की बस्तियों में ही नहीं,
बल्कि मेरे घर के अगले नुक्कड़ के पास
कोटेदार के अहाते पे भी।
मगर मेरा सच है कि मेरे पास
ग़मों के नाम पे सिर्फ़ तुम हो
और है, तुम्हारा न होना मेरे पास
ज़रा भी।
तो मैंने ख़ारिज कर दिए हैं
ये ‘सारे ग़म इस ज़माने के मोहब्बत के सिवा’
और फैज़ और बाक़ियों के वो सारे पैग़ाम
जो कि लिखे गए हैं
मेरे हिस्से के इस ग़म की मुख़ालफ़त में।
कि इस ग़म को पालने में,
मैंने ख़र्च कर दी है अपने हिस्से की सारी संवेदना
जो मुझे एक कवि, एक शाइर, या उससे पहले
एक मनुष्य बना सकती थी।
मैं अब एक कीड़ा हूँ,
जो किसी कालजयी कहानी का हिस्सा नहीं है।
- रचनाकार : अतुल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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