खुले हुए आसमान के नीचे
खुले हुए आसमान के नीचे
धूल और मिट्टी के बीच
खेल रही है मेरी बच्ची
अकेली और निर्द्वंद्व
लाल-नीले-पीले फूलों को तोड़ती
सूखे पत्तों को बटोरती
चुन रही है कूड़े में से सुडौल नन्हे कंकर
अक्सर बड़ी नायाब चीज़ें।
उसे मालूम ही नहीं है।
ख़ूबसूरत फूलों के बीच छिपा
विषैला कीड़ा भी वहीं है
मौक़ा पाते ही जो डंक मार देगा
तेज़ धार वाला नुकीला पत्थर
या काँच का टुकड़ा
अचानक पाँवों में चुभेगा
उसे कोई डर नहीं है!
हर नए और अजनबी से पहचान करती है
बेझिझक
दोस्ती का हाथ हर ओर बढ़ा देती है
निश्चिंत और बेपरवाह
ऐसी बेपरवाही किसे मयस्सर है!
उसके दिल में न छल है, न कपट
भोलेपन और मुहब्बत का झरना
झर रहा है
उछली पड़ती हैं बूंदें
आँखों से और होंठों से
दाँतों की दूधिया हँसी से
दूर...दूर ही रहना
ओ काली छायाओ,
अपने काले डैने फैला
न आना इस ओर
छिप जाएगी रोशनी
छिप जाएगा खुला आकाश
हवा दम तोड़ देगी
घुटने लगेगी फूलों की साँस
अंधकार में खो जाएगा
जीवन का सारा उल्लास!
न आना इस ओर
यहाँ खेल रही है मेरी बच्ची
अकेली और निर्द्वंद्व
उसे क्या दिया है मैंने ?
रूखा-सूखा खाती है घर का
मोटा पहन-ओढ़कर
भी ख़ुश है
प्यार करती है अपनी धरती से
स्वतंत्र आकाश के नीचे
विचरती है मुक्त भाव-सी
उसे जानकर अकेली
न आना इस ओर
टूटे नहीं हैं प्यार के रिश्ते
इस घर में अभी
भूल जाएगी कविताई मुझे
बिसर जाएँगे सहज स्वर
एक उसकी पुकार पर
ठहर जाएगा समय पल-भर को
चकित हो
देखने लगेंगी दिशाएँ
सर उठा
शांत-मौन धरती पर धधक उठेगा
ज्वालामुखी!
शांत सुखी घर को जलाने
न आना इस ओर,
ओ काली छायाओ!
अपने काले डैने फैला
न आना इस ओर।
- पुस्तक : समग्र कविताएँ (पृष्ठ 63)
- रचनाकार : कीर्ति चौधरी
- प्रकाशन : मेधा बुक्स
- संस्करण : 2010
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