Font by Mehr Nastaliq Web

खोना

khona

अर्पण कुमार

अन्य

अन्य

और अधिकअर्पण कुमार

    खोटे सिक्कों की तरह

    हम फेंक डालते हैं

    कई इंसानों को

    अपनी चेतना-दिनचर्या के घूरे पर

    हम खोते हैं लोगों को

    उनके ज़िंदा रहते हुए

    जब लहलहाती नहीं

    संवाद की हरीतिमा

    वे मर जाते हैं एक दिन

    उनसे बातचीत के रस

    अब किसी कलश से

    कभी नहीं छलकनेवाले

    अब नहीं खिलनेवाले

    उनके कहकहों के पुष्प

    बाग़ में कहाँ बचती है

    कोई गुंजाइश

    ज़र्द पत्तों के लिए

    बुहार कर एक जगह

    कूड़े की गाड़ियों में

    या आग के हवाले

    कर दिए जाते हैं वे

    निष्प्राण रिश्ते की गंध

    निष्प्राण देह की गंध से

    ज़्यादा असहनीय होती है

    मगर, हम भूलते जा रहे हैं

    अपनी घ्राण-क्षमता

    हम भूलते जा रहे हैं समरसता

    पगुराते हुए

    अपने-अपने चतुर्भुजों में

    हम जानते हैं यह

    मगर हम खोते जा रहे हैं

    किसी ‘खोते’ की तरह

    अपने इस जानने को भी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अर्पण कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY