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काया में कस्तूरी

kaya mein kasturi

प्रमिला शंकर

अन्य

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प्रमिला शंकर

काया में कस्तूरी

प्रमिला शंकर

और अधिकप्रमिला शंकर

    काया में कस्तूरी थी—

    पर मैं

    खोज रही थी

    वृक्षों के पीछे, गलियों के छोर पर,

    सड़क के किनारे उग आए

    गंधहीन कनेरों में,

    बिना सुगंध की लताओं में

    जलहीन बदलियों में

    मैं

    अपने भीतर से अधिक

    बाहर के कुहासे में

    सुगंध टटोलती रही—

    जबकि मेरा लहू

    अनजाने ही

    भीतर की किसी

    एक गंध में

    भीगता रहा

    मैं

    जिसे 'मैं' कहती थी—

    वह दरअसल एक

    बजता हुआ संदिग्ध

    स्वर था

    बिना सुर, बिना शब्द की

    एक पागल पुकार,

    जो किसी देवता की थी

    दानव की,

    बल्कि

    मेरे ही भीतर की

    संपुटित आवाज़ थी

    काया में कस्तूरी थी—

    मैं

    अबोध

    कोसती रही

    इस गंधहीन दुनिया को।

    क्या तुमने महसूस

    किया है

    आत्मा की नाभि से

    कभी उठती है

    एक बेचैनी—

    जैसे कस्तूरी मृग को

    अपने ही अंतस्तल की

    गंध

    अनजान दिशा में

    खींचती हो?

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रमिला शंकर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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